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________________ प्रस्तावना महाकवि हरिचन्द्रकी विद्वत्ता और रचना माधुर्य से जैन विद्वान् तो प्रभावित हैं ही, पर अजैन विद्वान् भी कम प्रभावित नहीं हैं । जिन्होंने इनके धर्मशर्माभ्युदयको देखा है वह अवश्य ही उनकी प्रौढ़ताका प्रशंसक हो गया है ! धर्मशर्माभ्युदय के ऊपर यद्यपि मायके शिशुपाल वधकी छाया है, पर दोनों को देखनेके बाद तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उत्प्रेक्षा गगन में जितना हरिचन्द्र विचरण कर सके हैं उतना मात्र नहीं कर सके हैं। मात्र पढ़ते-पढ़ाने चित्त ऊब जाता है पर धर्मशर्माभ्युदय हाथ में लेने पर उसे रखनेका भान नहीं होता । यह कवि कब हुआ ? कहाँ हुआ ? इसका निर्णयात्मक उल्लेख करना कठिन है | कविने धर्मशर्माभ्युदय के अन्त में प्रशस्ति देते हुए निम्न श्लोक लिखे हैं श्रीमानमेयमहिमास्ति स मोमकानां वंशः समस्तजगतीवल्यावतंसः । हस्तावलम्बनमवाप्य यमुल्लसन्ती वृद्वापि न स्वलति दुर्गपथेषु लक्ष्मीः ॥१॥ मुक्ताफलस्थितिरलंकृतिषु प्रसिद्धस्तत्रादेव इति निर्मलमृनिरासीत् । कायस्थ एव निरवद्यगुणग्रहः सन्नेकोऽपि यः कुलमशेषमलञ्चकार ||२|| लावण्याम्बुनिधिः कलाकुलगृहं सौभाग्य सद्भाग्ययोः क्रीडाश्म विलासवासवलभी भूपास्पदं सम्पदाम् । शौचाचार विवेक विस्मयमही प्रागप्रिया शूलिनः शर्वाणी पतिव्रता प्रणयिनी रथ्येति तस्याभवत् ॥ ३॥ अर्हत्पदाम्भोरुहचञ्चरीकस्तयोः सुतः श्रीहरिचन्द्र आसीत् । गुरुप्रसादादमला बभूवुः सारस्वते स्रोतसि यस्य वाचः ॥ ४ ॥ भक्तेन शक्तेन च लक्ष्मणेन निर्व्याकुलो राम इवानुजेन । यः पारमासादितबुद्धिसेनुः शास्त्राम्बुराशेः परमामसाद ॥५॥ पदार्थवैचित्र्यरहस्यसम्पत्सर्वस्वनिर्वेशमयात्प्रसादात् । वाग्देवतायाः समवेदि सभ्यः पश्चिमोऽपि प्रथमस्तनूजः ॥ ६ ॥ यः कर्णपीयूषरसप्रवाहं रसध्वनेरध्वनि सार्थवाहः । श्रीधर्मशर्माभ्युदयाभिधानं महाकविः काव्यमिदं व्यधत्त ॥७॥ यत्यसारमपि काव्यमिदं मदीयमादेयतां जिनपतेरनवैश्चरित्रैः । पिण्डं मृदः स्वयमुदस्य नरा नरेन्द्रमुद्राङ्कितं किमु न मूर्धनि धारयन्ति ॥ ८॥ दक्षैः साधुपरीक्षितं नवनवोल्लेखार्पणेनादरा यच्चेतः कषपट्टिकासु शतशः प्राप्तप्रकर्षोदयम् । नानाभङ्गिविचित्रभावघटना सौभाग्यशोभास्पदं ४१ तन्नः काव्यसुवर्णमस्तु कृतिनां कर्णद्वयभूपणम् ॥३॥ जीयाजैनमिदं मतं शमयतु क्रूरानपीयं कृपा भारत्या सह शीलयत्यविरतं श्रीः साहचर्यव्रतम् । मात्सर्य गुषु व्यजन्तु पिशुनाः संतोषलीलाजुषः सन्तः सन्तु भवन्तु च श्रमविदः सर्वे कवीनां जनाः ॥१०॥ इस प्रशस्तिका संक्षिप्त भाव यह है कि पृथिवीपर मोमक वंश प्रसिद्ध था । उसमें आर्द्रदेव नामक पुरुषरत्न हुए जो कायस्थ थे, उनकी स्त्रीका नाम रथ्या था । उन दोनोंके हरिचन्द्र नामका पुत्र हुआ । यह हरिचन्द्र जिनेन्द्र भगवान्‌के चरण कमलोंका भ्रमर था । इसके छोटे भाईका नाम लक्ष्मण था । गुरुके प्रसाद से हरिचन्द्रको विद्याका लाभ हुआ था । इस उल्लेखसे यह नहीं जान पड़ता कि इनका वास्तविक निवास कहाँ था ? और इनका समय क्या था ? कुलके विशेषणोंसे जान पड़ता है कि हरिचन्द्र किसी राजमान्य कुलके थे और
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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