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________________ दशम लम्भ ३१६ लोग उस युद्ध में बाण धारण करने तथा छोड़नेकी कलाको देख रहे थे । परस्पर शस्त्रोंकी टक्कर से उत्पन्न होकर उड़नेवाले अग्निके भारी तिलगोंसे उस युद्धमें हाथियोंके समूह भयभीत हो रहे थे । वह युद्ध देव-विद्याधरोंकी निर्मयाद प्रशंसाका विषय था और समस्त वीरजनों के लिए उत्साह देने में समर्थ था । 4 उस समय पद्मास्यने देखा कि हमारे बहुतसे बाण मथनके बाणोंसे खण्डित हो रहे हैं तो उसने कानके समीप तक डोरी खींचकर इतने अधिक बाण चलाये कि उनसे मथनके सारथि और ध्वजाको भेद डाला तथा अपने कण्ठसे निकलते हुए सिंहनादसे आकाशको विदीर्ण कर दिया ||६८ || तदनन्तर भारी क्रोध से जिसका मुख लाल हो रहा था ऐसे मथनने अर्धचन्द्राकार बाणके द्वारा पद्मास्यके धनुषकी डोरी काट दी । पद्मास्यने उसी क्षण हाथमें दूसरा धनुष लेकर उसपर श्रेष्ठ बाण चढ़ाये और उनके द्वारा शत्रुओं का समूह खण्ड-खण्ड कर दिया तथा शत्रुके धनुषको और उसके युद्धसम्बन्धी उत्साहको एक साथ विदीर्ण कर डाला । उसी प्रकार देवदत्तके चञ्चल करतल से छूटे हुए कितने ही बाणरूपी पक्षी अपने पर फैला कर युद्धभूमि में जा पड़े और कितने ही उठते हुए भयसे मुक्त होकर ( पक्षमें उठती हुई कान्ति युक्त होकर ) आकाश में स्थित रह गये । इधर सुन्दरतासे युक्त, देवोंके कितने ही पुष्पक विमान आकाश में स्थित हो गये और सुगन्धिसे युक्त कितने ही देवोंके पुष्पक - फूल जीवन्धर स्वामीकी समस्त सेनापर आ पड़े || ६ || जिसमें कबन्ध - मृतक मनुष्यों के धड़ उड़ रहे थे ( पक्षमें जिसमें कबन्ध—पानी उठ रहा था - छलक रहा था ऐसी उस वाहिनी तलमें--सेना में ( पक्ष में नदी तलमें) जहाँ-जहाँ पुण्डरीक - छत्र ( पक्षमें कमल ) प्रकट दिखाई देता था वहीं वहीं उस विजयी देवदत्तके शिलीमुख- - बाण ( पक्ष में भ्रमर ) पड़ रहे थे ||७० || इस प्रकार युद्धमें पागल देवदत्तसम्बन्धी उद्दण्ड भुजाओंकी अहंकारपूर्ण चेष्टाको जो सहन नहीं कर रहा था, मुकुटमें लगे पद्मराग मणियों के समूहकी प्रभासे जिसके मुखकमल सम्बन्धी क्रोधजन्य लाल कान्तिका समूह पुनरुक्त हो रहा था, जिसका प्रताप शत्रुओं को संताप उत्पन्न करने वाला था, और हाथमें कम्पित धनुषरूपी लतासे छूटे हुए बाणोंके समूह से जिसने शत्रुपक्षका दुरभिमान नष्ट कर दिया था ऐसे मागध नामक राजाने पाँच छः बाणोंके द्वारा देवदत्तके रथ के घोड़े विदीर्ण कर दिये । तब निर्मल यशके धारक प्रसिद्ध देवदत्तने क्रोध में आकर अपने तीक्ष्ण बाणोंके द्वारा मागधभूपालका कवच तोड़ डाला, उसके वक्षःस्थलपर शक्ति नामक शस्त्र गड़ाकर उसकी सामर्थ्य नष्ट कर दी और युद्ध भूमिमें उसे गिरा दिया || ११ || तदनन्तरप्रभुके प्रताप के समान महाशूर वीर मागध नरेशको पृथिवीपर पड़ा देख जिसके क्रोधसंतप्त नेत्रोंसे तिलगे निकल रहे थे, जिसका मुख टेड़ी भौंहोसे अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था, कान तक खिंचे धनुषसे छोड़ी बाणवर्षासे जिसने शत्रुओंका मद नष्ट कर दिया था, और जिसकी चतुरङ्ग सेना हर्षसे भरी हुई थी, ऐसा कलिङ्ग देशका राजा घोड़ा, हाथी और पैदल सिपाहियों के समूहको चीरता हुआ वेगके साथ कौरव - जीवन्धर कुमारकी सेनाको क्षुभित करने लगा । उस समय कलिङ्ग नरेशके आकाशचारी वाणोंके समूह से अत्यन्त व्याकुल हुए देव लोग ही डरकर जल्दी से नहीं भागे थे किन्तु पृथिवीपर शत्रुओंके सैनिक भी उसी क्षण प्रत्येक दिशा में भाग गये थे । साथ ही अपने सैनिकों के भयपूर्ण उद्यम तथा आत्मीय यशकी तरङ्गे भी तत्क्षण वृद्धिगत हो रहे थे ||७२॥ उसी समय जिस प्रकार सिंह हाथी के सामने जाता है उसी प्रकार
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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