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________________ ३१४ जीवन्धरचम्पूकाव्य था और जिसमें वीणा ही शुल्क थी ऐसे गन्धर्वदत्ताके स्वयंवरके समय हुए युद्ध में जिसने अहंकारी राजाओंके समूहको खदेड़ दिया था ऐसा जीवन्धर कुमार अकेला ही नहीं जीता जा सका था फिर अब तो वह अनेक विद्याधर और भूमिगोचरी राजाओंसे युक्त है अतः कैसे जीता जा सकेगा ? इसलिए जो आपको इसके पहले प्राप्त नहीं था ऐसा उसका राजपद उसीकी भुजापर सौंपकर पहलेकी तरह मन्त्रीपदपर ही अधिष्ठित रहनेके योग्य हैं। इस प्रकार धर्मदत्त मन्त्रीने काष्ठाङ्गार से कहा। धर्मदत्त मन्त्रीके उक्त शब्द सुनकर काष्ठाङ्गार पहले तो कुछ देर तक चुप बैठा रहा। तदनन्तर कानमें मुख लगाकर जब मथनने उसके क्रोधको उत्तेजित किया तब कहने लगा कि अरे नीच ! इस प्रकार भयसहित बहुत कुछ कहनेके लिए तुझसे पूछा ही किसने था ? यदि तू डरपोक है तो घरमें बैठ, तू नपुंसक है, व्यर्थ ही बोलनेसे क्या लाभ है ? ॥ ३२ ॥ मदोन्मत्त हाथियोंकी घटाओं, स्पष्ट नाचते हुए घोड़ों और हर्षित होते हुए योद्धाओंके विस्तारसे जिसमें दिशाओंके तट आच्छादित हैं ऐसी रणभूमिमें तलवारकी चमकती हुई धारासे मैं युद्धके लिए उद्यत राजाओंकी उज्ज्वल लक्ष्मीका हरणकर कुन्दके फूल के समान उज्ज्वल अपनी कीर्तिके द्वारा समस्त दिशाओंको अभी-अभी सफ़ेद करता हूँ ॥ ३३॥ दूसरी बात यह है कि जिसकी ललाटकी सीमापर जन्मसे लेकर संसारका राज्य करना नहीं लिखा किन्तु इसके विपरीत व्यापार करना ही लिखा है उस नीच बनियेके लड़केके साथ श्रेष्ठ राजाओंकी आज क्या सन्धि हो सकती है ? ॥ ३४ ॥ सेनाओंसे जिसका पार्श्वभाग घिरा हुआ था ऐसे मथनकी बाणावलीसे जो पहले उच्छिष्टकी भाँति बचा रहा आज वह ग्रस्त किया जाता है-अभी पूरा खाया जाता है ॥ ३५ ॥ _____ इस तरह अहंकारपूर्ण वचन सुनकर जिसका ललाट क्रोधसे लाल हो रहा था ऐसा नयविशाल नामका दूत बड़ी गम्भीरताके साथ निम्नांकित वचन बोला। अरे, भीलोंके समूहने जब गावोंका समूह हर लिया था और मथन सेनाके साथ भाग गया था तब आप वेगसे किवाड़ बन्दकर महलके भीतर बैठ रहे थे और स्त्रियोंने जब पकड़ा था तब कहीं शरीरकी कँपकँपी छोड़ सके थे ॥ ३६॥ ऐसे पराक्रमसे मण्डित-भुजदण्ड जिसकी शोभा बढ़ा रहे हैं ऐसे आपका जीवन्धर कुमार के साथ सन्धि करना ही उचित है। नपुंसक जैसी वृत्तिको धारण करनेवाले धर्मदत्तसे क्या और प्रचण्ड वृत्तिको धारण करने वाले आपसे क्या ? जीवन्धर कुमारके हस्ताग्रसे प्रेरित हुआ चक्र ही उन्हें राज्यलक्ष्मी प्रदान करनेके लिए समर्थ है ॥ ३७ ॥ - इस प्रकार कहकर तथा वेगसे बाहर निकलकर नयविशाल दूतने समाचार ज्योंके त्यों जीवन्धर कुमारसे कह दिये । तदनन्तर युद्धकी विशाल तैयारीसे युक्त जीवन्धर कुमारने पद्मास्यको सेनापति बनाकर गरुडवेग, गोविन्द, लोकपाल तथा पल्लवभूपाल आदि राजाओंसे यथायोग्य पूछकर रणाङ्गणमें उतरनेके लिए सेनाओंको आदेश दे दिया। __उधर काष्ठाङ्गारने भी रणभूमिके प्रति सेनाका प्रस्थान करानेके लिए अपने सेनापति मथनको आदेश दिया ॥३८॥ तदनन्तर दोनों ओरके सैनिक क्रम-क्रमसे रणाङ्गणमें प्रविष्ट हुए । उस समय उन सैनिकोंकी समीपवर्ती दिशाएँ उन हाथियोंसे आच्छादित थीं जो कि दोनों ओरसे अपने विशाल गण्डस्थलोंसे झरनेवाले मदकी धाराओंका प्रवाह उत्पन्न कर रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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