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________________ जीवन्धरचम्पू ३० यद्यपि मेरी इच्छा थी कि ग्रन्थका नाम पुष्पिका वाक्यके आधारपर चम्पु जीवन्धर ही रक्खा जाय पर भारतीय ज्ञानपीठके प्रधान सम्पादक महोदयका सुझाव प्रचलित नाम रखनेका ही प्राप्त हुआ। जिसे मैंने स्वीकृत कर लिया अतः अब यह ग्रन्थ 'जीवन्धर चम्पू' इस नाम से ही प्रकाशित हो रहा है । टीका ओर प्रकाशन - अध्ययन और अध्यापनकी ओर निसर्गतः प्रवृत्ति होनेके कारण जहाँ मैंने जैन ग्रन्थोंका परिशीलन किया है वहाँ अनेक अजैन ग्रन्थोंका भी परिशीलन किया है और उस परिशीलनसे मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा कि जैन कवियोंने संस्कृत भाषाका रत्नभाण्डार भरनेमें कोई कमी नहीं की है। भले ही जैन साहित्य में ग्रन्थों की बहुलता न हो पर जो भी थोड़ेसे ग्रन्थ जैनाचार्यों के लिखित आज उपलब्ध हैं वे अन्य अजैन ग्रन्थोंकी होड़ में पीछे रहने लायक नहीं हैं । खेद इस बात का है कि समाजका रवैया कुछ ऐसा रहा है कि उत्तमोत्तम ग्रन्थों को भी जनता के समक्ष नहीं ला सका है । अन्य समाज में जहाँ साधारणसे साधारण ग्रन्थोंकी अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं वहाँ जैन साहित्यके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी टीकारहित पड़े हैं । जीवन्धर चम्पू अपनी भाव भङ्गी और शब्दार्थ-सम्पत्तिकी अपेक्षा एक उत्तम काव्य माना जाता है पर इस पर एक भी टीका टिप्पणी नहीं । ग्रन्थकर्ताके भावको आजका विद्यार्थी सरलतासे समझना चाहता है पर हमारे जो प्राचीन प्रकाशन हैं उनसे विद्यार्थी वर्गको निराश होना पड़ता है । जीवन्धर चम्पू विशारद परीक्षा की पाठ्यपुस्तक है इसलिए इसे पढ़ानेका अवसर मुझे प्रायः प्रतिवर्ष हो मिलता रहता है। पढ़ाते समय मैं अनुभव करता हूँ कि अमुकस्थल इतना दुरूह है कि उसे टीका के बिना छात्र अच्छी तरह हृदयंगत नहीं कर सकता । यही विचार कर पाँच-छह वर्ष हुए तब जीवन्धर चम्पूकी संस्कृत-हिन्दी टीका लिखी थी । जो कि आज श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्रीकी प्रेरणा पाकर भारतीय ज्ञानपीठ बनारसकी ओरसे प्रकाशित हो रही है । संस्कृत टोका विस्तृत टीका है इसमें समास पर्याय, अलंकार, छन्द आदिके निर्देश से छात्रोंकी व्युत्पत्ति बढ़ानेका पर्याप्त ध्यान रक्खा गया है । हिन्दी भाषाभाषी लोग भी इस ग्रन्थके स्वरससे परिचित हों इस दृष्टिसे परिशिष्ट में हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। इस तरह इस साहित्यिक साधना के द्वारा आशा करता हूँ कि हमारा विद्यार्थी वर्ग तो लाभान्वित होगा ही साथ ही साहित्य-सुधाभिलाषी अन्य जन भी महाकवि हरिचन्द्रकी रसधाराका आस्वादन कर सकेंगे । काव्य, उसकी विशेषता तथा रचयिता आदि प्रासङ्गिक चर्चाएँ अग्रिम प्रकरण में देखिए । काव्य और काव्यका प्रयोजन - काव्य, वह सितामिश्रित संजीवनी है कि जिसके द्वारा अनेक दुष्प्रवृत्ति रूपी ज्वर अनायास ही शान्त हो जाते हैं । काव्यसे न केवल मनोरंजन होता है अपितु उससे धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक ज्ञानकी शिक्षा, कायरों को साहस, वीर जनोंको उत्साह, शोकाभिभूत जनोंको सान्त्वना एवं उद्विग्न चित्त वालोंको परम शान्ति मिलती है । काव्यालंकार में लिखा है कि धर्मार्थकाममोक्षाणां वैलक्षण्यं कलासु च । प्रीतिं करोति कीर्तिञ्च साधुकाव्यनिबन्धनम् ॥ अर्थात् उत्तम काव्यकी आराधना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष विषयक चातुर्य, कलाओं में प्रीति तथा कीर्तिको करता है ।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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