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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य महाराज क्रोधवश राजमहलसे बाहर निकल आये और उस हाथोने हमारे प्राणोंके समान आचरण करनेवाले महाराजको मारकर शीघ्र ही समस्त नगरवासी लोगोंको शोकसागरमें और मुझे अकीर्तिके पूरमें निमग्न कर दिया। जिस प्रकार कमलोंके समूहपर फैली हुई ओसको सूर्य नष्ट कर देता है उसी प्रकार आप मुझपर फैली हुई इस अकीर्तिको नष्ट करनेके लिए योग्य हैं । इसलिए हे राजन् ! हे दयाके सागर ! शीघ्र ही हमारे नगर पधारिये और मित्रताको निभाइये ॥७॥ इस तरह शत्रुका संदेश सुनकर गोविन्द महाराज हँसने लगे और जीवन्धर स्वामीके मुखकमलपर अपने खञ्जरीटके समान सुन्दर नेत्र नचाने लगे-उनकी ओर देखने लगे। जीवन्धर स्वामीने कहा कि हे राजन् हे मातुल ! इसमें कुछ भी शक नहीं कि मेरी भुजाओंकी निरङ्कश गर्मी इस शत्रुको नहीं सह रही है केवल समयकी प्रतीक्षा की जा रही है ॥८॥ इस प्रकार जीवन्धर स्वामीके उक्त उत्तर सम्बन्धी वचनोंकी चतुराईके सुनने में जिनकी बुद्धि लग रही थी ऐसे अधीर चित्त महाराज गोविन्दने चतुरङ्ग सेनाके साथ राजपुरीकी ओर जाना, वहाँ अपनी पुत्रीका स्वयंवर विस्तारना, नानादेशोंके राजाओंका सम्मेलन बुलाना और शत्रुका संहार करना इन सब बातोंका निश्चयकर काष्ठाङ्गारके साथ हुई मित्रताकी प्रसिद्धि करानेके लिए नगाड़ा बजवा दिया अर्थात् मित्रताकी घोषणा करा दी। प्रथम ही गोविन्द महाराजने चलते हुए समुद्र के समान अपनी सेना देखी और फिर सब ओरसे प्रस्थान करनेका आदेश दिया। उन्होंने बड़े ही हर्षसे जिनेन्द्र भगवान्के चरणकमलोंकी पूजा की और कौतुकसे युक्त हो शीघ्र ही वहुत प्रकारका पात्र दान दिया ।।६।। ___तत्पश्चात् जीवन्धर आदि कुमारोंसे घिरे हुए धीर वीर गोविन्द महाराजने रथपर आरूढ होकर शुभ लग्नमें प्रस्थान किया। कुछ ही दूरीपर शिर झुकाये हुए सेनापति उन्हें चारों ओरसे घेरकर चल रहे थे और उनके आगे पृथिवीके विस्तारको संकुचित करनेवाली बड़ी भारी सेना चल रही थी ॥१०॥ उस समय भेरियोंके शब्दसे, घोड़ोकी जोरदार हिनहिनाहटसे, रथोंकी चीत्कारसे और मदोन्मत्त हाथियोंकी चिङ्घाड़से शीघ्र ही समस्त संसार व्याप्त हो गया था और रथोंके साथ ईर्ष्या होनेके कारण ही मानो धूलिके समूहसे सूर्यका रथ ढक गया था ।।११।। उस समय गोविन्द महाराजकी सेना ठीक नदीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार नदी फेनसे चित्र-विचित्र रहती है. उसी प्रकार वह सेना भी सफेद छत्रोंसे चित्र-विचित्र थी, जिस प्रकार नदी तरङ्गोंसे संगत रहती है उसी प्रकार वह सेना भी उछलते हुए घोड़ोंसे संगत थी, जिस प्रकार नदी बड़े-बड़े जल-जन्तुओंसे सहित होती है उसी प्रकार वह नदी भी मदोन्मत्त हाथियोंसे सहित थी और जिस प्रकार नदी मछलियोंके समूहसे व्याप्त रहती है उसी प्रकार वह सेना भी चञ्चल तलवारोंसे व्याप्त थी। इस तरह नदीकी तुलना करनेवाली वह सेना बड़े वेगसे आगे बढ़ रही थी। सेनाके चलनेपर जो धूलिका पुञ्ज उत्पन्न हुआ था और आकाशके अन्दर अपरिमित परिमाणमें फैल गया था वह हाथियोंके मद-जलसे, उनकी सूंडोंसे ऊपरकी ओर गये हुए जलके छींटोंसे तथा घोड़ोंके मुखसे निकलनेवाली लारके जलसे सब ओर शान्त हो गया था ॥१२॥ ___ तदनन्तर दुरासद् मदसे आक्रान्त होनेके कारण जिनके नेत्र कुछ-कुछ बन्द हो रहे थे, जिन्होंने अपने शुण्डादण्ड दाँतोंके अग्रभाग पर रख छोड़े थे, दोनों ओर लाल कम्बलोंकी झूलें लटकते रहनेके कारण जो गेरुसे युक्त लाल-लाल पर्वतोंकी तुलना कर रहे थे, कानोंके पास लटकनेवाले सुवर्णमय अङ्कशके कारण जो कर्णाभरणको धारण किये हुए-से जान पड़ते थे, और चलते-फिरते कुलाचलोंके समान सुशोभित थे ऐसे असंख्यात हाथियोंसे उस सेनाकी समस्त
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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