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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य स्वेद जलके संचारको, चित्तमें लज्जा-भय-हर्ष और आश्चर्य रसकी तन्मयताको तथा शरीरमें कामजन्य संतापको धारण किया था ।।२८।। तदुपरान्त जब उसने अपने पास वृद्ध ब्राह्मणको नहीं देखा तब उसके नेत्र प्रतिबन्धहीन लज्जासे चञ्चल हो उठे और मुख नीचेकी ओर झुक गया। जीवन्धर स्वामीने उसी समय उसका आलिङ्गनकर कपोल चूमा और अपनी गोदमें बैठाकर मीठे-मीठे वचनोंकी परम्परा तथा सुगन्धित चूर्ण आदिकी चर्चाओंसे उसे बहुत ही आनन्द प्राप्त कराया। वृद्धका रूप धारण करनेवाले जीवन्धर स्वामी खिले हुए फूलांकी शय्यापर सो रहे थे और हृदयमें रागधारण करनेवाली सुरमञ्जरीसे कह रहे थे कि तू पैर दाब । सुरमञ्जरी भी उनके कहे अनुसार पैर दाब रही थी । यह देख उनके मित्र हर्षित और संतुष्ट हो रहे थे ॥२६॥ तदनन्तर पालकीपर सवार हो सुरमञ्जरी सखियोंके साथ अपने महलके भीतर चली गई । सुरमञ्जरीके माता-पिता सुमति और कुवेरदत्तको जब उसकी सखियोंके मुखसे यह सब हाल मालूम हुआ तो वे तत्काल ही आनन्दसे मन्थर हो विवाह मङ्गलका विस्तार करने लगे। तत्पश्चात् शुभ मुहूर्तमें कुबेरदत्तके द्वारा दी हुई उत्तम नितम्बवाली सुरमञ्जरीका जीवन्धर स्वामीने पाणिग्रहण किया ॥ ३० ॥ सुरमञ्जरी क्या थी मानो कामशास्त्रकी शाला ही थी, अथवा रसरूपी सागरकी तरङ्ग ही थी। उसके श्रेष्ठतम गुण तथा स्वभाव अत्यन्त प्रशंसनीय था, हंसीके समान उसकी चाल थी, नीलकमलके समान उसके नेत्र थे, चन्द्रमाके समान सुन्दर उसका ललाट था और अत्यन्त सुन्दर थी उसकी मीतियोंकी माला । ऐसी सुरमञ्जरीके साथ रमण करते हुए जीवन्धर स्वामी मन्द हास्य रूपी अमृतके स्थान हो रहे थे ॥३१।। इस प्रकार महाकवि श्री हरिचन्द्रविरचित जीवन्धरचम्पू-काव्यमें सुरमञ्जरीकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला नौवाँ लम्भ समाप्त हुआ। दशम लम्भ तदनन्तर जीवन्धर कुमार सुरमंजरीके मुखसे किसी तरह अनुमति प्राप्तकर उसके महलसे बाहर निकले और अपने समस्त मित्रोंके साथ जा मिले । तत्पश्चात् मित्रोंके ही साथ अपने घर जाकर उन्होंने अपने माता-पिताके नेत्रोंको ऐसा आनन्दित किया मानो अमृतका अञ्जन ही लगा दिया हो। चरणकमलोंमें झुके हुए नयनाभिराम पुत्रको देखकर माता-पिताने बड़े प्रेमसे उसका आलिङ्गन किया ! बार बार मस्तक सूंघा, नेत्रोंसे उसके मुखकमलकी सुधाका पान किया और कानोंसे उसके वचनरूपी मधुका आस्वादन किया। इस तरह उन दोनोंने अपरिमित आनन्दका विस्तार किया ॥१।। उन्हें आया देख गन्धर्वदत्ताने वचनागोचर आनन्द प्राप्त किया और उदार पराक्रमके धारी जब वे उसके घर पहुंचे तब कमलोंके समान लम्बे नेत्रोंवाली गन्धर्वदत्ताने उनसे कहा कि ॥२॥ हे आर्यपुत्र ! आपकी विरहाग्निसे जिसकी शरीररूपी लता अत्यन्त कृश हो गई है ऐसी वह गुणमाला क्षण क्षणमें बेचैन हो उठती है, बेखबर होती है और मूच्छित हो जाती है इसलिए सर्वप्रथम आप उससे मिलकर तदनन्तर यहाँ पधारिये ।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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