SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य इस प्रकार मन्द हास्यरूपी चाँदनीसे सुन्दर उसके मुखरूपी चन्द्रमाकी अमृततुल्य वचनधाराको सुनकर वह ब्राह्मण 'ठीक-ठीक, अच्छा कहा' इस तरह प्रशंसा करने लगा। हाथसे लाठी पकड़ बड़ी कठिनाईसे उठा और गिरता-पड़ता उसकी विकसित विचकिलके फूलोंसे सुगन्धित हंसतूलकी शय्यापर चढ़नेका प्रयत्न करने लगा। दासियोंने उसका हाथ पकड़कर उसे इस वृष्टतासे रोका तो सुरमञ्जरीने दासियोंको मनाकर उसे शय्यापर चढ़नेकी सहर्ष अनुमति दे दी। फलस्वरूप वह वृद्ध ब्राह्मण शय्यापर चढ़कर क्रमसे सो गया। उस वृद्धको तरुण स्त्रीके साथ विलास करनेमें रसिक देखकर ही मानो वृद्ध सूर्य, पश्चिम दिशारूपी स्त्रीके साथ समागम करनेके लिए रसिक एवं बहुत भारी अङ्गरागसे सुशोभित हो अस्ताचलको गुफारूपी क्रीड़ागृहमें घुस गया और कामदेवने भी अपने हाथमें वाणोंके साथ धनुष सँभाल लिया ॥१६॥ ___ तदनन्तर जव सब मनुष्योंकी दृष्टिको रोकनेवाला अन्धकारका समूह फैल गया तब समस्त वृक्ष, तमाल वृक्षके समान जान पड़ते हैं, समस्त पक्षी कोयलके समान प्रतीत होते हैं, सब पर्वत नीलगिरिके समान आचरण करते हैं, समस्त जङ्गली जानवर रीछके समान प्रतिभासित होते हैं और समस्त नदियाँ यमुना नदीका अनुकरण करती हैं ऐसा लोगोंको सन्देह होने लगा। तदनन्तर अन्धकाररूपी हाथीको शुभित करनेके लिए सिंहके समान एवं कुन्दके फूलके समान निर्मल चन्द्रमा उदयाचल के समीपमें सुशोभित होने लगा ॥१७॥ तत्पश्चात् उस वृद्धने आनन्दमें निमग्न हो मधुर रसके निष्यन्दसे भरा हुआ लोकप्रशस्त गाना गाया। वह गाना विद्याधरराजकी पुत्री गन्धर्वदत्ताके विवाहके समय जीवन्धरने गाया था अतः उसे सुनकर सुरमञ्जरीको संशय हुआ कि क्या यह जीवन्धर है ।।१८।। तदनन्तर सुरमञ्जरी सहर्ष उठकर जिस तरह मेखला खनक न सके, नू पुर शब्द न कर सकें और हाथकी चूड़ियाँ हिलडुल न सकें इस तरह सखियोंको आगेकर धीरे-धीरे उसको शय्या के पास जाकर बैठ गई । उस समय वह सखियोंको आगेकर स्वयं उनके पीछे बैठी थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो मालतीलताओंके पीछे रत्न लता ही सुशोभित हो रही हो। इस प्रकार उस चकोरलोचनाने संसारको मोहित करनेवाला गाना सुना। कुछ समय बाद चतुर जीवन्धर ललित गानकी लीलाको समाप्तकर शीघ्र ही सुन्दरताके साथ शान्तिपूर्ण गीत गानेके लिए उद्यत हुए। उसे सुनकर समस्त स्त्रियोंने चारों ओरसे कौतूहलवश उन्हें यह कहते हुए घेर लिया कि आपने जो गाना पहले गाया था उसे फिरसे गाइये ॥१६॥ जीवन्धरने उत्तर दिया कि यदि आपलोग मेरे संतोषके लिए कुमारीको देना निश्चित करें तो मधुर गाना गाया जावे ॥२०॥ तदनन्तर उसके वचन सुनकर समस्त स्त्रियाँ हँसने लगी और जिस तरह गई थीं उसो तरह लौटकर जब सोने लगी तब जीवन्धर स्वामीके स्मरणसे उत्पन्न हुए सन्तापसे जिसका समस्त शरीर व्याप्त था ऐसी सुरमञ्जरी भी क्रमसे नई कोंपलोंकी शय्यापर सो गई। तदनन्तर जब अत्यन्त रक्तमण्डलको धारण करनेवाला सूर्य पूर्वाचलपर सुशोभित होने लगा तब मधुर वचन बोलनेवाली सुरमञ्जरी ब्राह्मण-वेषधारी जीवन्धरके पास जाकर कहने लगी ॥२१॥ हे आर्य! हे अपरिमित गुणोंके सागर ! संगीत-शास्त्रके समान और किन-किन शास्त्रोंमें आपकी कुशलता प्राप्त है ? मनोहर और मधुर गानेमें तो जीवन्धरको छोड़कर कोई दूसरा तीन लोकमें भी आपके समान नहीं है ।।२२।। ___- इस प्रकार सुरमञ्जरीका प्रश्न सुन वृद्ध ब्राह्मणने इस तरह उत्तर दिया। समस्त शास्त्ररूपी कसौटीपर घिसनेके कारण तीक्ष्ण धाराको धारण करनेवाली एवं निर्मलताका क्रीड़ा-भवन स्वरूप मेरी बुद्धिरूपी तलवार अहङ्कारी वादियोंके मदरूपी अङ्करको सहन
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy