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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य किसी एक दिन जीवन्धर स्वामी अपने मित्रोंके साथ एकान्तमें बैठे थे । वहाँ मित्रोंकी ओरसे प्राप्त अपूर्व सम्मानके कारण इनका मनरूपी कमल संशयके मूलामें भूल रहा था। आखिर इन्होंने मित्रोंसे इसका कारण पूछा तब समस्त मित्रोंमें प्रधान जो पद्मास्य नामका मित्र था वह इस प्रकार उत्तर देने लगा। ___ हे स्वामिन् ! यद्यपि हम लोगोंके शरीर आपकी विरहाग्निसे जल रहे थे तो भी आपके होनहार दर्शनके पुण्योदयसे देवी गन्धर्वदत्ताने हम लोगोंको बहुत आश्वासन दिया और दया पूर्वक शीघ्र ही हस्तावलम्बन प्रदान किया जिससे हम लोगोंने अश्वपालकोंका वेष धारण किया ॥३॥ ___तदनन्तर समस्त अश्वोंके समूहको आगेकर हम लोग नगरसे निकल पड़े और क्रम-क्रमसे बहुत दूरका मार्ग उल्लंघनकर जिसमें पक्षियोंके शब्दोंसे दशों दिशाएँ निरुद्ध थीं ऐसे किसी बड़े जंगलमें प्रविष्ट हुए। वहाँ गगनचुम्बी वृक्षोंके समूहसे मण्डित दण्डकवनके मध्यभागमें निर्मित कपड़ेके तम्बुओंके पास घोड़ोंको बाँधकर विश्रामके सुखका अनुभव करने लगे। वहाँ महलोंकी पंक्तिको अतिक्रान्त करनेवाले सफेद वर्णके लम्बे-चौड़े तम्बुओंसे जो निवासस्थल बनाया गया था उसे देखकर हम लोगोंको ऐसा जान पड़ता था कि मानो आपके विरहसे कातर राजपुर नगरकी लक्ष्मी ही हम लोगोंके साथ आ गई हो ॥३६॥ ___तदनन्तर अनेक आश्चर्यों से भरे हुए दण्डक वनको देखनेकी इच्छासे हम लोग इधर-उधर घूमने लगे। उधर हम लोगोंने कहीं तो हाथियोंके विदीर्ण गण्डस्थलसे पतित मुक्ताफलोंके द्वारा सिकतिल एवं वनविहारसे थककर स्नान करनेवाली भीलनियोंके मुखकमलोंसे सुशोभित बहुत गहरा बड़ा तालाब देखा । कहीं वृक्षोंके नीचे शार्दूल सो रहे थे। उन्हीं वृक्षोंपर बन्दर बैठे हुए थे। बन्दर अपने हाथोंसे शाखाओंको कम्पित करते थे जिससे पत्तोंका समूह टूट-टूटकर उन शार्दूलों पर पड़ रहा था। इस क्रियासे शार्दूल कुपित होकर दौड़ते थे। उन्हें दौड़ता देख भील लोग वेगसे दौड़कर किन्हीं गगनचुम्बी ऊँचे वृक्षोंपर चढ़ रहे थे-यह देखा । कहीं वृक्षोंके नीचे सुखसे सोये अन्धकारके समूहके समान काले ऋक्षोंके झुण्ड देखे । कहीं सूर्यकी किरणोंसे संतप्त हस्तिनीको तालाबके पास लाकर हाथी अपनी सूंडसे उखाड़ी हुई छोटे-छोटे मृणालोंका समूह उसके शरीरपर रख रहा था, कमलकी परागसे सुगन्धित शीतल जलके छींटोंसे उसके मुखपर सींच रहा था और अपनी सूंडसे पकड़कर ऊपर उठाये कमलिनीके विशाल पत्रको छत्ता बनाकर उसपर छाया करता था...यह देखा । तथा कहीं अनादरके साथ क्षणभरके लिए दोनों नेत्र खोलकर पुनः सोनेकी इच्छा करनेवाले सिंहोंका समूह आश्चर्यके साथ देखा । यह सब देखते हुए हम लोग तपस्वियोंसे भरे हुए किसी ऐसे स्थानपर पहुँचे जहाँ एक वृक्षके नीचे रहनेवाली पुण्यमूर्ति माताको देखा। ____ उस माताका दुर्बल शरीर मलिन वस्त्रोंसे वेष्टित था तथा ऐसा जान पड़ता था मानो अन्धकारसे घिरी हुई चन्द्रमाकी एक अत्यन्त कृश कला ही हो । उसका मुख मुरझाये कमलके समान था, वाणी शोकसे दीन थी, श्वासें चिन्ताके कारण दीर्घ थीं और मस्तकपर रात-दिन जटा बँधी रहती थी ॥४॥ माताने देखते ही पूछा कि आपलोग कहाँके रहनेवाले हैं ? इसके उत्तरमें मैंने कहना शुरू किया कि राजपुर नगरमें विद्वानोंके समूहका सेहरा एक जीवन्धर कुमार नामका महानुभाव सुशोभित था वही हम लोगोंका जीवनौषधि था ॥४१॥ मैं राजसेठकी सुभद्रा स्त्रीसे उत्पन्न हुआ पद्मास्य हूँ, यह सत्यन्धर महाराजके मन्त्रीसे सागरदत्तामें उत्पन्न हुआ श्रीदत्त है, यह अचलसे तिलोत्तमामें उत्पन्न हुआ बुद्धिषेण है, यह
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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