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________________ पञ्चम लम्भ २८१ अर्थात् नागेन्द्रके समान शरीरका धारक होकर भी नागेन्द्र-जैसी लीलासे रहित है (पक्षमें उत्कृष्ट शरीरका धारक होकर भी विटकी लीलासे रहित है) और मित्रानुरागसे सहित होकर भी कलाधरेच्छ है अर्थात् सूर्यके अनुरागसे युक्त होकर भी चन्द्रमाको इच्छा करता है (परिहार पक्षमें मित्रों के प्रेमसे युक्त होकर भी कलाधारी-विद्वानोंके समागमकी इच्छा रखता है)। ३१ ।। यद्यपि उसके चरण-कमल नखरूपी चाँदनीसे उज्ज्वल हैं तो भी राजाओंके शिरोंपर लगे हुए रत्नोंकी कान्तिरूपी बाल-आतपसे भी सुशोभित रहते हैं ॥ ३२ ॥ कान्तिकी अवसान भूमि और उत्कृष्ट गुण रूपी आभूषणोंसे सहित उस राजाकी मनोहारिणी स्त्री तिलोत्तमा नामसे प्रसिद्ध है ॥ ३३ ॥ राजा धनपति और तिलोत्तमा रानीके अपनी कान्तिसे लक्ष्मीको जीतने वाली एक पद्मा नामकी पुत्री है जो कि शिरीषके समान सुकुमार अङ्ग और कठोरस्तन कुड्मलोंको धारण करनेवाली है ॥ ३४ ॥ भुवनत्रयकी आभूषणलताके समान दिखने वाली वह पद्मा किसी एक दिन विहारके लिए वनमें गई और सखियोंके साथ जहाँ-तहाँ विहार करने लगी। रोमराजिरूपी लता और चोटीके द्वारा यह मेरा तिरस्कार करती रहती है इस द्वेषसे ही मानो साँपने उसे डस लिया । जब राजाको इस वृत्तान्तका पता चला तब उसने चिन्तातुर होकर यह घोषणा कराई कि जो कोई भी इस कन्याको निर्विष करेगा उसे आधे राज्यके साथ-साथ यही कन्या दी जावेगी। यद्यपि इस घोषणाको सुनकर बहुतसे विष-वैद्योंने आकर इसकी चिकित्सा की है तो भी वह नीरोगताको प्राप्त नहीं हो रही है। । वह राजकन्या पद्मा अर्थात् लक्ष्मी होकर भी गौरी अर्थात् पार्वती है (परिहार पक्षमें पद्मा नामकी होकर गौरवर्ण वाली है)। मध्यसे रहित होकर भी सुमध्यमा है (परिहार पक्षमें पतली और सुन्दर कमरवाली है ) कन्या होकर भी भुजङ्गदष्टा है अर्थात् कुमारी होकर भी कामीजनसे उपभुक्त है (परिहार पक्षमें कन्या होकर साँपके द्वारा डसी हुई है)। और सुखके कारण ही मानो नेत्र बन्द किये पड़ी है ॥३५।। यदि आपके पास अनुपम विष-विज्ञान है तो राजाका यह कन्या-रत्न आज निर्विष कर दीजिए ॥३६॥ ____ इस प्रकार उन सबके वचन सुनकर. जीवन्धर कुमारने उत्तर दिया कि कुछ थोड़ा-सा विषविज्ञान है । तो जिस प्रकार मेघ अपनी कलकल गर्जनाके द्वारा मयूरोंको आनन्दित करता है उसी प्रकार जीवन्धर स्वामीने भी अपने प्रत्युत्तरसे उन लोगोंको आनन्दित किया था। तदनन्तर जीवन्धर स्वामीने उन्हीं लोगोंके साथ राजभवनमें जाकर राजपुत्री पद्माको देखा । पद्मा क्या थी? सगर-मोहनाङ्गी-विष-जन्य मूर्छासे युक्त शरीरकी धारक होकर भी नगर-मोहनाङ्गी-विषजन्य मूर्छासे युक्त शरीरकी धारक नहीं थी (पक्षमें नगरको मोहित करनेवाले शरीरकी धारक थो) और अवस्था तथा विष दोनोंसे ही श्यामाङ्गी थी-युवती तथा श्याम शरीरकी धारक थी। वह माधवी लताकी पूर्ण सदृशताका अनुभव कर रही थी। उसका ललाट मुरझाये कमलके समान था, भुजाओंके युगल मर्दित बालमृणालके समान थे, और स्थूल स्तनरूपी कुङ्मल श्वाससे कम्पित हो रहे थे । उसे देखकर स्वामीका मन कामके प्रहारसे ठगा गया। ऐसे ही मनसे वे यक्षराजका स्मरण करते हुए पद्माको मन्त्रित करने लगे-मन्त्रसे झाड़ने लगे। राजपुत्री उसी क्षण मूर्छासे रहित हो गई और राहुसे रहित चाँदनीके समान, धूमसे रहित अग्निकी शिखाके समान, सघन तिमिरसे रहित पूर्णिमाके समान, काले बादलसे रहित आकाशकी लक्ष्मीके समान और शेवालसे रहित गङ्गाके समान सुशोभित होने लगी। इस तरह बिजलीके समान कान्तिवाली पद्मा समीपमें स्थित मनुष्योंको आनन्दित करती हुई शीघ्र ही उठ खड़ी हुई ॥३७॥ जिस प्रकार चन्द्रिका चकोरोंको आनन्दित करती है उसी प्रकार माता-पिताकी लाड़ली बेटी पद्माने बड़े आदरके साथ जीवन्धर स्वामीको आनन्दित किया था ॥३८॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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