SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य उस समय कुरुवंशशिरोमणि जीवन्धर कुमार विवाहके वेष-भूषासे उज्ज्वल थे और साक्षात् कामदेव के समान समस्त मनुष्योंके नेत्रोंको सन्तुष्ट कर रहे थे । गुणमाला भी यद्यपि नयमालासे सबको आनन्द करनेवाली थो तो भी इससे विपरीत थी । परिहार पक्ष में विनयकी मालासे आनन्द करनेवाली थी । जीवन्धर स्वामीने हर्षोत्फुल्ल नेत्रोंसे गुणमालाको देखा था । गुणमाला फूलसे भी अधिक सुकुमार अङ्गको धारण करनेवाली थी, उसकी कमर आकाश के समान सूक्ष्म थी, वह स्वयं कामदेवकी धनुपलताके समान जान पड़ती थी और उसकी त्रिवी कामदेवकी अंगुलियोंकी सन्धि-रेखाके समान मालूम होती थी ||४०|| उस गुणमालाके अमृतके समान रसको धारण करनेवाले ओठरूपी पल्लवके अग्र भाग पर जो मन्द मुसकानरूपी फूल प्रकट हुए थे और जीवन्धर कुमार के नेत्ररूपी कमल फलसे युक्त हुए थे तथा हृदयने शीघ्र ही रसकी धारा उत्पन्न की थी यह विचित्र बात थी || ४१|| कुरुवंशशिरोमणि जीवन्धर स्वामी गुणमाला के साथ विवाहकर आनन्दरूपी पर्वतके उतरितन भागपर चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे ||४२|| २७६ इस प्रकार महाकवि हरिचन्द्र विरचित श्री जीवन्धर - चम्पू - काव्य में गुणमालाकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला चतुर्थं लम्भ पूर्ण हुआ । पञ्चम लम्भ अथानन्तर शत्रुओं के प्राण नष्ट करने में समर्थ जीवन्धर स्वामीके बलका मन हीके द्वारा आस्वादन करनेवाले हाथीने जिस प्रकार पहले स्वकबलम् - अपना बल छोड़ दिया था उसी प्रकार अब तृणरूप स्व-कबलं अपना ग्रास छोड़ दिया था ||१|| जो कुण्डलके द्वारा ताड़ित हुआ है तथा जिसका दुष्ट अहङ्कार –— कुण्डली - कृत - नत्रीभूत हो गया है ऐसे राजाके सेनासम्बन्धी हाथीने उत्तरोत्तर बढ़नेवाला क्रोध धारण किया || २ || जब राजा काष्ठाङ्गारको इसका पता चला तब उसने अपनी विशाल क्रोधाग्निको जीवन्धर आदि कुमारोंके समूहसे ही शान्त करना चाहा । उसकी वह क्रोधाग्नि भीलोंकी सेनाके जीतने से उत्पन्न हुई थी, वीणा विजयसे पल्लवित हुई थी, अनङ्गमालाके सङ्गसे प्रदीप्त हुई थी और गजराजके शिरोमण्डलको हाथके कड़े द्वारा ताड़न करनेसे जाज्वल्यमान हुई थी । फलस्वरूप उसने युद्ध में पराजित न होनेवाले कुमारको हाथ पकड़कर ले आओ, ऐसा मथन आदि लोगोंको आदेश दिया और हाथी, घोड़े, रथ तथा पदाति लोगोंसे चित्रित सेनाके साथ उन्हें भेजा भी । इधरसे रथपर बैठा तीक्ष्ण प्रवृत्तिवाला मथन सेना आगे कर चला और उधर से यह जानकर अपने मित्रोंसहित जीवन्धर कुमार भी रथपर बैठकर युद्ध करनेकी इच्छा करते हुए शत्रु से आ मिले ||३|| उस समय रणके अग्रभागमें कुमारकी बाहुपर सुखसे सोई हुई विजयलक्ष्मीको जगानेके लिए ही मानो हाथी गरज रहे थे, नगाड़े बज रहे थे और घोड़े हींस रहे थे ||४|| कुरुकुञ्जर जीवन्धर कुमारने हाथमें सुशोभित धनुषसे लगातार निकलनेवाले बाणोंके द्वारा धनुषोंके साथ-साथ शत्रुओंके शिर छेद डाले थे । सुभटोंके धीरज के साथ-साथ बड़े-बड़े हाथियोंको भेद डाला था और हाथियोंके निकले हुए मोतियों के साथ-साथ बाणोंके समूहकी वर्षा की थी ॥५॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy