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________________ तृतीय लम्भ जिस प्रकार कि क्षीरसमुद्रकी तरङ्गोंके समूहमें चन्द्रमाके प्रतिविम्ब सुशोभिन होते हैं अथवा विजया पर्वतके ऊँचे शिखरोंपर सिंह सुशोभित होते हैं ।।२।। तदनन्तर विशाल नेत्रोंके विलाससे नीलकमलको जीतनेवाली गन्धर्वदत्ता पालकीपर सवार हो स्वयंवर-मण्डपमें आई। उस समय गन्धर्वदत्ता क्या थी मानो सब लोगोंके नेत्ररूप हिरनोंको वश करनेके लिए जालस्वरूप ही थी, मूर्तिधारिणी कामदेवके साम्राज्यकी पदवी ही थी, शृङ्गाररूपी राजाकी राजधानी ही थी, सौन्दर्य-सुधासागरकी तरङ्गोंकी वेला ही थी, नवयौवन का सर्वस्व ही थी, सौभाग्यकी संजीवन औषध ही थी, लक्ष्मीकी दूसरी मूर्ति ही थी और राजाओंके नेत्रों के लिए अमृतकी शलाका ही थी। कुछ ही समय बाद विद्याधर-सुन्दरीने प्राप्त हुई श्रेष्ठ वीणाकी कोमल तान तथा संगीत आदिके द्वारा समस्त देशोंके राजाओंको जीत लिया। उस समय उसके संगीतका म्वर ऐसा जान पड़ता था मानो हस्त-कमलोंकी फैलती हुई कान्तिकी परम्परामें नूतन पल्लवके भ्रमसे जो भ्रमर इकट्ठे हुए थे उनकी गुञ्जारका ही स्वर हो ॥३०॥ उस समय संगीतविद्याके जाननेवाले समस्त लोगोंने गन्धर्वदत्ताके करकमलमें स्थित वीणाका मधुर रस अपने कानरूपी कटोरोंके द्वारा पीपीकर स्त्रियोंके ओठको अधर (पक्षमें तुच्छ ) सुधाको सुरोद्धृत-देवोंके द्वारा निकाली हुई (पक्षमें सुरा-शरावसे निकाली हुई दुगन्धित ) और मधुको मधुप-पान योग्य-भ्रमरोंके पीने योग्य (पक्षमें मद्यपायी लोगोंके पीनेके योग्य ) माना था ॥३१॥ तत्पश्चात् प्रत्यक्ष कामदेवके समान दिखनेवाले, पांच सौ मित्रोंसे घिरे हुए जीवन्धर कुमार स्वयंवरसभाके आँगनमें आये । आते ही उन्होंने वीणाकी कलामें कुशल श्रेष्ठ विद्वानोंको गुण-दोषकी परीक्षामें नियुक्त किया। फिर सेवकजनोंके द्वारा लायी गयी तीन-चार वीणाओंमें उन्होंने केश, रोम, लव आदि अनेक दोष बताये । यह देख प्रसन्नतासे भरी कन्याने उन्हें अपने हाथको अलङ्कारभूत सुघोषा नामकी वीणा दे दी और वह उन्होंने ले ली। ___ तदनन्तर जीवन्धर कुमारने वीणा लेकर उसपर अपने हाथकी कुशलता दिखलाई । गन्धर्वकन्याने जीवन्धर कुमारमें अपना मन लगाया, संगीतज्ञ मनुष्योंने अपना शिर हिलाना शुरू किया और काष्टाङ्गार आदि राजाओंने लज्जाको बढ़ाया ॥३२॥ कुमारकी वीणाके तारका शब्द सुनकर सब हरिणोंने कोमल घासका खाना छोड़ दिया और सबके सब क्षणभर में स्तब्ध रह गये तथा वीणाके स्वरने जिनभक्त शारदादेवीके उस कानमें अपना स्थान जमा लिया जिसमें कि लगा हुआ कल्पवृक्षका पल्लव शिरके हिलनेसे नीचे गिर गया था ॥३३।। इतनेमें ही गन्धर्वदत्ता पराजयको ही जय समझने लगी तथा लज्जाके कारण चञ्चल नेत्रोंसे फैलनेवाले कटाक्षरूपी दूधकी धाराको प्रत्येक दिशामें बिखेरने लगी। अन्तमें उसने प्रतीहारीके हाथमें स्थित माला लेकर जीवन्धरके वक्षःस्थल पर छोड़ दी। वह माला जीवन्धर स्वामीके शोभायमान वक्षःस्थलरूपी पुलिनके ऊपर ऐसी जान पड़ती थी मानो सौभाग्यरूपी सागरकी लहर ही हो और उनके पुण्यरूपी चन्द्रमाके बढ़ते हुए उदयको सूचित कर रही थी । एकक्षण में वह माला उनके वक्षःस्थलपर बसनेवाली लक्ष्मीकी कटाक्षावली के समान जान पड़ती थी तो दूसरे क्षण में ऐसी लगती थी मानो आगे चलकर होनेवाले युद्ध में वीर लक्ष्मीके द्वारा पहिनाई हुई विजयकी माला ही हो ॥३४॥ गन्धर्वदत्ताकी मधुर-मनोहर और कुलपरम्परागत जो वीणा थी उसने उसे जीवन्धर स्वामीकी प्राप्ति करानेमें दूतीका काम किया ॥३५॥ उसी समय मेघ और समुद्रके शब्दकी शङ्काको फैलानेवाला, समस्त दिशाओंके अन्तरालको शब्दायमान करनेवाला और नगरकी सब स्त्रियोंके चित्तको हरनेवाला तुरहीका गम्भीर तथा विशाल शब्द समस्त नगरमें गूंज उठा ॥३६।।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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