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________________ द्वितीय लम्भ मौन रह जाना हो योग्य उत्तर समझा। वे मुख-कमल तथा मनरूपी सरोवरमें विनयरूपी मृणालको धारण कर रहे थे और शिष्य तथा गुम-सम्बन्धी शिष्टताकी अपने मुखपर क्रीड़ा करा रहे थे। प्राप्त मणिकी विशुद्धता को जानकर जिस प्रकार उसके स्वामीको अपार हर्प होता है उसी प्रकार प्राप्त गुरुकी विशुद्धताको जानकर जीवन्धर कुमार भी हर्षम्पो सागर के परम पार को प्राप्त हो रहे थे और यह सब होनेपर भी वे गृहस्थ-धर्मरूपी सागरमें निमग्न थे। तदनन्तर गुरु आर्यनन्दीने श्रेष्ठपुत्र जीवन्धर को एकान्त स्थानमें ले जाकर अपने शब्दों द्वारा राजा का समस्त वृतान्त सुना दिया, गुरुमुखसे पिताका वृत्तान्त जानकर जीवन्धर बहुत ही कुपित हुए और अनायास उत्पन्न क्रोधसे जगत्को जलाते हुए-से जान पड़ने लगे। इस प्रकार गुरुके कहनेसे 'मैं राजा का लड़का हूँ और काष्टाङ्गार राजा का हत्यारा है। इस बातका निश्चयकर जीवन्धर कुमार युद्धके लिए तैयार हो गये। वे उस का ठाङ्गारको बढ़ती हुई क्रोधाग्निके समान प्रज्वलित वाणाग्निका भी इंधन बनाना चाहते थे। वे मदोन्मन हाथीके समान क्रोधसे अन्धे हो रहे थे, उनके तात्कालिक क्रोधके वेगको रोकने में गुरु भी असमर्थ हो रहे थे। इस तरह वे युद्धके उद्योगसे विरत नहीं हो रहे थे। गुमने भी उनके बहुत भारी क्रोधसे विस्तारित युद्धकी तैयारी देख अपने हृदयमें निश्चय कर लिया कि यह अन्य प्रकारसे मानने वाला नहीं है । निदान गुरुने निम्न शब्द कहकर जिस किसी तरह उनकी युद्धकी तैयारीको रोका । गुरुने कहा था कि हे वत्स ! अधिक नहीं, एक वर्पतक क्षमा धारण करो, यही मेरे लिए गुरु-दक्षिणा होगी। तदनन्तर गुरुने निम्नाङ्कित शिक्षा और भो दी। उन्होंने कहा कि जिनका हृदय शास्त्ररूपी समुद्र में निमन्न है ऐसे मनुष्यों को यह क्रोध कभी भी नहीं करना चाहिए। नहीं तो आचरणसे रहित उनकी शास्त्राध्ययनकी कला व्यर्थ ही कहलावेगी। अपने हाथों में दीपकके सुशोभित रहने पर भी जो लोग इस पृथिवीपर कुामें गिरते हैं उन्हें उस दीपकसे क्या लाभ है ? ॥ १६ ॥ इत्यादि नीतिमार्गका उपदेश देकर तथा जीवन्धर कुमारको समझाकर समस्त संसारको अतिक्रान्त करने वाला मोक्षमार्ग प्राप्त करनेके लिए बहुत भारी आदरसे भरे हुए गुरुदेव जब तपोवनको उस तरह चले गये जिस तरह कि सूर्य पश्चिम समुद्रके वेलावनको चला जाता है तव जीवन्धर कुमार बहुत ही खिन्न हुए। अनन्तर उन्होंने गुरुदेवके संस्मरणसे संधुक्षित विरहजन्य शोकाग्निको तत्त्वज्ञानरूपी जलके प्रवाहसे शान्त किया। तदनन्तर जिस प्रकार फूलों की लक्ष्मी लताको प्राप्त होती है, देवोंके द्वारा वाञ्छनीय वसन्तकी सुपमा जिस प्रकार पारिजात कल्पवृक्षमें स्थिति को प्रात होती है, जिस प्रकार गङ्गा नदी समुद्रकी वेलाको प्राप्त होती है, शरद् ऋतु चन्द्रमाके बिम्बको प्राप्त होती है, प्रातःकालके सूर्यकी प्रभा, समुद्रके तीरको प्रात होती है और शरद्की चाँदनी जिस प्रकार निर्मल कुमुद्रोंके वनको प्राप्त होती है उसी प्रकार यौवनरूपी लक्ष्मी राजपुत्र जीवन्धर कुमारके शरीरको प्राप्त हुई ॥ २० ॥ उस समय जीवन्धर कुमारका आनन्ददायी शरीर सौन्दयकी परम सीमा, शृङ्गारकी परमगति और कलाओंकी श्रेष्ठ खान हो रहा था ॥२१॥ उस समय उनका रूप, सुन्दर शरीरवालीका प्रथम उदाहरण था, कान्तिरूपी सम्पदाओं का अधिष्ठात देव था, सुन्दरताकी संजीवन ओपधि था, शृङ्गार रसका संकेत-भवन था, श्रष्ठ रसिकताका जीवनदायी रस था, कलाओंका क्रीड़ाभवन था, हास्यक्रीड़ाओंका शिक्षास्थान था, संगीत-विद्याओं का तिगड्डा था, स्त्रियोंके नेत्रोंको आकर्षित करनेके लिए आकर्षण औपध था, युवती-जनोंके मनोंको रोकनेके लिए वन्धनगृह था, समस्त मनुष्योंके नेत्रोंको तृप्त
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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