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________________ २४८ जीवन्धरचम्पूकाव्य देश, बलवान बालकके द्वारा बलित्रय तीन रेखाओं (पक्षमें तीन बलवानों) को नष्टकर राजाके सन्तासके साथ ही साथ भारी हो गया था। ६० ।। हमने नील कमलोंको तो पहले ही जीत लिया था अव सफेद कसलोंकी जीतना है यह सोचकर ही मानो रानीके दोनों नेत्र सफेद हो गये थे ॥६१॥ जब राजाने रानीको गर्भवती देखा और खोटे स्वप्नका फल स्मरण किया तो उसका चित्त पश्चात्तापसे भर गया। वह अपनी रक्षामें तत्पर होता हुआ इस प्रकार विचार करने लगा। दुष्कर्म के उदयसे पराभूत होनेके कारण मैंने विपयानुरागरूपी अपथ्यका सेवन किया और मन्त्रियोंके वचन रूपी सञ्जीवन औपधिका उल्लंघन किया। अथवा मेरी यह इच्छा, पानी बह कर निकल जाने के बाद पुल बाँधनेकी इच्छाके समान अनवसरमें उत्पन्न हो रही है। इससे अब क्या काम होनेवाला है ? मेरी यह इच्छा फलोंका समय आने पर फूलोंके संचयकी इच्छाके समान हँसीका ही कारण है। ऐसा विचारकर राजाने उस समय अपने वंशकी रक्षा करनेमें चित्त लगाया, यशमें आदर स्थापित किया और शरीरसे स्नेह घटाया । इस सबकी पूर्तिके लिए उसने एक मयूरयन्त्र बनवाया ।।। ६२ ।। यद्यपि मेघावली, शिखी अर्थात् अग्निके नाशका कारण है तथापि वर्षा ऋतुके समय वह हमारे ही समान नामवाले मत्तशिखी अर्थात् मत्तमयूरोको सुख पहुँचाती है ऐसा विचार कर वह कल्पित मयूरयन्त्र राजाके द्वारा प्रेरित होकर मेघोंके समीप आकाशमें खूब घूमा था। ॥ ६४ ॥ धीर वीर राजा सत्यन्धर, चन्द्रमुखी रानी विजयाको मयूरयन्त्रमें बैठाकर उसके सघन केशोंसे पराजित मेधको देखनेके लिए ही मानो गर्भकालिक क्रीड़ाका अनुभव करनेके अर्थ आकाश में घूमा था ।। ६४॥ इधर यह सब हो रहा था उधर दुराचारी काष्ठाङ्गार यह राजाका हत्यारा है, 'बड़ा कृतन्नी है' इत्यादि प्रकारके काले अपयशको दिशाओंके मध्यमें फैलाता, समस्त हितकारी प्रवृत्तियोंको दूर करता और राज-द्रोहमें अपना चित्त लगाता हुआ मनमें ऐसा विचार करने लगा कि जिस प्रकार सरस केला और अन्यन्त मधुर दूध आदिके उपचारसे परिपालित किन्तु पिंजरे में बन्द तोतेके वच्चेका जीवन भले ही उत्कृष्ट पदवीको क्यों न प्राप्त हो निन्दनीय ही है । अपने पराक्रमके ऐश्वर्यसे जिसे मृगराज पद प्राप्त हुआ है और गजराजके गण्डस्थलके भेदन करने में जिसके तीक्ष्ण नख बहुत ही निपुण हैं ऐसे मृगेन्द्रके जीवनके समान स्वतन्त्र जीवन ही अनिन्दित है, प्रशंसनीय है, निर्दोप है और अतिशय मनोहर है। ___ इस प्रकार किये हुए उपकारको नहीं माननेवाले काष्ठाङ्गारने पहले अपने मनमें विचार किया और फिर राजद्रोहमें तत्पर होकर मन्त्रियोंके साथ निम्न प्रकार मन्त्रणा शुरू की ॥६५।। उसने कहा कि हे मन्त्रियो ! जिस प्रकार नाटकीय कथावस्तुओंको अवसर देनेके लिए नटी सबसे पहले रंगभूमिमें आती है उसी प्रकार आपलोगोंकी वाणीको अवसर देनेके लिए मैं अपनी वाणीको सबसे पहले उपस्थित करता हूँ ॥६६।। और वह यह है कि राजाके साथ द्रोह करनेमें तत्पर देव मुझे यह कहकर प्रतिदिन बाधा पहुँचाता रहता है कि तुम राजाक साथ द्रोह करो । देवकी इस प्रेरणाका फल अच्छा होगा या बुरा इसी बातके विचारमें मेरा हृदय निरन्तर झूलता रहता है। हे मन्त्रियो ! तर्क-वितर्क अथवा अन्य नियमित साधनोंके द्वारा आप लोग इस बातका निश्चय कीजिये ॥६७॥ मेरी जिह्वा इस निन्दनीय बातको कहनेके लिए भी लज्जासे पीछे हटती है। उसने जो यह बात कही है सो दैवके भयसे ही कही है ॥६॥ __ इस प्रकार कपट वश जिसमें अन्तरंगका भाव छिपाया गया है ऐसे काष्ठांगारके वचनसे समस्त सभाके लोग उस तरह भयभीत हो गये जिस प्रकार कि उत्तमकुलमें उत्पन्न हुए मनुष्य निन्दासे, साधुजन प्राणियोंकी हिंसासे; हिरणोंके बच्चे दावानलकी ज्वालाआंसे, राजहंस मेघोंकी घनघोर गर्जनासे और दरिद्र लोग दुर्भिक्षसे भयभीत हो जाते हैं।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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