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________________ प्रथम लम्म २४३ और स्तनोंके ऊपर इकट्ठा होकर सरोवरके समान जान पड़न लगता था। उस आंसुओंक सरोवरमें उनके मुख तथा नेत्रोंके प्रतिविम्ब पड़ते थे जो कि ठीक कमल और मछलियोंके समान जान पड़ते थे। उसी आँसुओंके सरोवरमें चन्द्रमाका भी प्रतिविम्ब पड़ रहा था उस दिखाकर वे अपने बच्चोंसे कहती थीं कि यह है तेरा हंस । और विरहाग्निमें जिसका शरीर मुलस रहा है ऐसी मेरे लिए भी यह हंस है-सूर्य है । इस प्रकार जिस किसी तरह वे अपने बच्चोंको शान्त कर पाती थीं। जब कभी उनके बच्चे यह कह कर रोने लगते थे कि हमारे खेलनेका मयूर दिखलाओ उस समय वे बहुत दुखी होती थीं और किसी मयूरीके आगे नृत्य करते हुए मयूरको दिखाकर गद्गद वाणीसे कहने लगती थीं कि यह है तेरा मयूर | अरे तेरा ही नहीं मेरा भी यह शिखी-मयूर (पक्षमें अग्नि) है। ___उस राजा सत्यन्धरकी विजया नामसे प्रसिद्ध रानी थी जो कि कान्तिकी अधिष्ठात्री देवी थी और सौन्दर्यरूपी सागरकी मानो वेला ही थी ।।२६।। जिस प्रकार बिजली मेघको, नूतन मञ्जरी आमके वृक्ष को, पुष्पोंकी सम्पत्ति चैत्र मासको, चाँदनी चन्द्रमाको और निर्मल प्रभा सूर्यको विभूषित करती है उसी प्रकार वह दीर्घलोचना राजा सत्यन्धरको सुशोभित करती थी ॥२७॥ रानी विजयाके चरणयुगल, कण्ठ और मुख क्रमसे कमल, शङ्ख और चन्द्रमाकी समानता धारण करते थे । कान्ति, हस्तयुगल और नेत्र क्रमसे लक्ष्मी, विधि और कमलसे भी अधिक उल्लासताको धारण करते थे। चोटी मन्दगति और स्तन क्रमसे उत्तम सर्प, हाथी और निकटवर्ती पर्वतको समानता धारण करते थे। इस प्रकार कहना पड़ता है कि उस सुलोचनाके शरीरकी सुन्दरता शब्दोंसे बहुत दूर थी अर्थात् शब्दोंके द्वारा उसकी शारीरिक सुन्दरताका वर्णन नहीं हो सकता था ।।२८।। यद्यपि कामदेव शरीरहीन है तथापि उसे जागृत करनेके लिए सजीवन औषधियोंके समान वहुत-सी स्त्रियाँ उसके अन्तःपुग्में थीं तो भी एक विजया ही राजाके लिए प्राणोंके समान प्रिय थी ॥२६॥ शृंगाररूपी सागरकी तरङ्गावलीके समान उस देवीको सुखसे रमण कराता हुआ राजा सत्यन्धर सदा आनन्दके सागर में निमग्न रहता था और इन्द्रकी पदवीको तृणके समान तुच्छ समझता था ॥३०॥ यद्यपि राजा सत्यन्धर समस्त राजाओंके शिरोमणि थे, विद्वानोंकी सभाके अग्रगण्य थे, राजनीतिज्ञोंके स्वामी थे, भले-बुरे तत्त्वकी वास्तविकताके जाननेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ थे और समस्त योग्य आचरणोंके उदाहरण थे तथापि किसी एक समय कामसे परतन्त्रित चित्त होनेके कारण वे कृत्य और अकृत्यका विवेक खो बैठे । फलस्वरूप कर्मरूपी सारथिसे प्रेरित होकर ही मानो उन्होंने सज्जनरूपी वनको जलानेके लिए अङ्गारके समान काष्ठाङ्गारके लिए अपनी पृथिवी देनी चाही। तदनन्तर जिन्हें इस बातका पता चला जो मानो शरीरधारी राजकीय तन्त्र और मन्त्र ही थे, प्रजाके भाग्यके पर्याय थे, कुलकी प्रतिष्ठाके प्रकार थे, क्षमा और अनुरागके पर्याय थे, और शास्त्ररूपी समुद्रके पारदर्शी थे ऐसे मुख्य मन्त्री लोग परस्पर में स्वयं सलाहकर तथा राजाके सम्मुख आकर उचित निवेदन करने लगे। हे देव ! आप प्रसिद्ध नीतिरूपी समुद्रको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके समान हैं अतः आपके समक्ष हम लोगोंका कुछ भी निवेदन करना ठीक उसी तरह संगत नहीं है जिस तरह कि संसारप्रसिद्ध सुगन्धितको धारण करनेवाली कस्तूरीका मालतीके फूलसे सुगन्धित करना संगत नहीं है ।।३।। तथापि अपनी जिह्वाकी खाज दूर करनेके लिए हम लोगोंने एक विज्ञप्ति-प्रार्थनाकी रचना की है सो वह विज्ञप्ति, इस समय सुननेके लिए आपकी प्रतीक्षा कर रही है ॥३२॥ हे देव ! जिस प्रकार नन्दनवनमें सुशोभित होनेवाली हरिचन्दनकी लता दूसरे वनमें ले जानेके योग्य नहीं है, आम्रवनमें लगी हुई मालतीकी लता जिस प्रकार थूवरके वनमें ले जानेके योग्य नहीं है, कमलवनमें रहनेवाली लक्ष्मी जिस प्रकार आकके वनमें ले जानेके योग्य नहीं है,
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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