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________________ प्रथम लम्भ जिनके दोनों चरण, शोभायमान नखोंकी कान्तिरूपी आकाशगङ्गाके बीच कछुएके समान जान पड़ते हैं, सेवासे नम्रीभूत इन्द्रोंके हीरकमय मुकुटोंकी पतित हंसके समान आचरण करती है, दर्शन करनेवाली देवाङ्गनाओंके नेत्रों के समूह मछलियोंके समूहके समान जान पड़ते हैं और राजाओंकी अञ्जलियाँ कमल-कुडमलोंके समान प्रतिभासित होती है, वे आदि जिनेन्द्र तुम सबकी रक्षा करें॥जिन्होंने अपने शोभासम्पन्न चरणोंके द्वारा समस्त जगत्को आक्रान्त किया है, (पक्षमें जिसकी शोभायमान किरणें समस्त जगन्में व्याप्त हैं ), जो श्रेष्ट महिमाको करनेवाले हैं (पक्षमें जो अतिशय शीतलताको करनेवाला है), जिन्हें अनन्त सुख और अनन्त ज्ञान प्राप्त हुआ है, (पक्षमें जिससे जीवोंको अपरिमित सुखका बोध होता है): जिनकी कान्ति अथवा श्रद्धा संताप और अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेमें प्रसिद्ध है ( पक्षमें जिसका निजकी कान्ति गर्मी और अन्धकार दोनोंको नष्ट करनेमें प्रसिद्ध है ), जो सज्जनोंके समूहके अधिपति हैं (पनमें जो नक्षत्रोंके समूहका राजा है), जो अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मीसे सहित है (पक्षमें अनुपम शोभासे सम्पन्न है ) और जो दिव्यध्वनिसे सुशोभित होनेवाली समस्त कलाओंके स्वामी हैं (पक्षमें जो आकाशमार्गमें सुशोभित होनेवाली समस्त कलाओंसे प्रिय हैं। ऐसे धीर वीर चन्द्र. प्रभ जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा हमारी बुद्धिरूपी नीलकमलिनीका विकास करें।।।। जो हरीश पूज्य होकर भी अहरीश पूज्य हैं (पक्षमें जो हरि-विष्णु और ईश-रुद्रके द्वारा पूज्य होकर भी दिनके स्वामी सूर्य, उपलक्षणसे ज्योतिषी देवों के द्वारा पूज्य है), सुरेश वन्ध होकर भी असुरेशवन्ध हैं (पक्षमें इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय होकर भी भवनवासी देवोंके इन्द्रों द्वारा वन्दनीय है), और जो अनङ्गरम्य-शरीरसे सुन्दर न होकर भी शुभाङ्गरम्य-शुभ शरीरसे सुन्दर हैं (पक्षम-कामदेवके समान सुन्दर होकर भी शुभ शरीर-परमादारिकशरीरसे सुन्दर है। ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान् तुम सबका भला करें ॥३॥ जो सात हाथ उत्तुङ्ग परमौदारिक शरीरके धारक हैं, मौनसुखके करनेवाले हैं, सम्यग्दृष्टि मनुष्य सदा जिनकी स्तुति करते हैं और जो विषयासक्ति रूपी रागसे रहित हैं ऐसे श्रीवर्धमान स्वामीरूपी अपूर्व कामदेवकी में स्तुति करता हूँ। भावार्थ-इस श्लोकमें भगवान् वर्धमान स्वामीको अपूर्व कामदेव बतलाया है अर्थात् कामदेवका जैसा रूप काव्य जगत्में प्रसिद्ध है उससे बिभिन्नरूप बतलाया है। प्रचलित कामदेव शरीर रहित है परन्तु वर्धमान स्वामी आयत-लम्बे परमौदारिक शरीरके धारक हैं, प्रचलित कामदेव शिव अर्थात् महादेवजीको सुख करनेवाला नहीं है अपितु उनके शत्रुरूपसे प्रसिद्ध है परन्तु वर्धमान स्वामी शिव अर्थात् मोक्षसुखके करनेवाले हैं, प्रचलित कामदेवको सम्यग्दृष्टि जीव अच्छा नहीं समझते पर वर्धमान स्वामीको अच्छा समझते हैं-सदा उनकी स्तुति किया करते हैं और प्रचलित कामदेव अपनी रति नामक स्त्रीके रागसे हीन नहीं हैं, सहित है परन्तु वर्धमाम स्वामी रति अर्थात् विषयासक्ति रूप रागसे रहित हैं। इस प्रकार प्रचलित कामदेवसे विभिन्नता रखनेवाले वर्धमान स्वामीरूपी अपूर्व कामदेवकी स्तुति की गई है ।।४॥ जो लोकके ऊर्ध्वभागरूपी एकान्त स्थानमें मुक्तिरूपी स्त्रीके साथ विराजमान हैं, जिन्होंने अष्ट कर्म नष्ट कर दिये हैं और जो अत्यन्त विशुद्धताको प्राप्त हैं उन सिद्ध भगवान्का मैं हृदयमें चिन्तवन करता हूं ॥५॥ मैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी उस श्रेष्ठ रतित्रयकी आराधना करता हूँ जो कि भव्यजीवों का मुख्य आभूषण है, मुक्तिरूपी कान्ताको सन्तुष्ट करनेवाला है, और अज्ञानान्धकारके समूहको नष्ट करनेवाला है ॥६॥ जो कर्मोंको नष्ट करनेके लिए छुरी है, संसाररूपी समुद्रसे पार करनेके लिए जहाज है, जिसने अपने केशपाशसे मेघोंकी माला जीत ली है, और जो जिनेन्द्र भगवान के
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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