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________________ ७८ जीवामिगमसूत्रे 'जो इण? साढे' नायमर्थः समर्थः, कि 'तेसिणं तणाणं मणीणय' रोपां खल राणानां मणीनां च, 'एत्तो हटतराए वेव जाव मणामतराए चेव गंधे पन्नते' इत: कोष्ठपुढादिद्रव्येश्य इष्टतरक एक, कान्ततरक एव, मनोज्ञतरक एव, मन आमतरक एवं गन्धः यज्ञश:-कथित इति । वनपण्डान्तर्गत तगमणीनां गन्धान निरूप्य सेपा स्पर्शाद निरूपयितुमाह-अत्र श्रीगौतमः पृच्छति-'तेलिणं भने' इत्यादि, 'तेसि ण भंते ! तणाण य मणीण य' तेषां खलु भदन्त ! तृणानां च मणीनां च 'केरिसए फासे पत्र कीदृशः-किमा. कारका स्पर्शः प्रज्ञाः-कथितः कि नक्ष्यमाणवस्तु स्पर्शसशस्तेषां स्पो भवति ?' तदेव दर्शति-से जहाणामए' तद्यथानामकम् 'आउणेइ या' आजिनकमिति वा, आजिनकं लक्ष्मचर्ममयं वस्नन् 'एतिवा' रूतमिति वा, स्तं श्लक्ष्णकर्पास. विशेषा 'यूरेति वा चूर इति बा, चू: इलक्षणवनस्पतिविशेषः 'गवणीतेति बा' समर्थ नहीं है। क्योंकि तलिणं तणाण यनगीण व एत्तो नराए चेवं जान प्रणामतराए चेव गंधे पत्ते' इन मणियों का गध कोष्ठ पुटादि द्रव्यो के गध की अपेक्षा इष्टतर फान्ततर मनोज्ञतर और मन आम. तर ही माना गया है अपश्रीगोतमस्मात्री तृण और मणियों के स्पर्श के विषय में भभुश्री से पूछते है, 'तेसि भंते ! तणाणघमणीयरिसए फाले पन्नत्ते' हे मदन्त ! उन तगों और भणियों का स्पर्श कैसा कहा गया है क्या ६षमाण आजिनक आदि वस्तुओं के स्पर्श जैसा होता है ? सही दिखलाते है-'ले जहा णाम ए आईणे चा रूपया' जैसा स्पर्श आजिनक चर्ममयमन्त्रका होता है जैसा स्पर्श रूई का होता है। 'रेलि दा' जैसा स्पर्श-दूरनामकी वनस्पति का होता है। ‘णवणीएति 'गोयमा ! जो इणद्वे समटे है जीतम ! ! म अमर नथी. भदेखि णं तणाणय मणीय एत्तो इट्टतरोए चेत्र जाव मणामतराए चेव पण्णत्ते' आ મણિને ગધ કેષ્ટપુટ વિગેરે દ્રવ્યોના કરતા ઈષ્ટતર, કાંતતર, માતર, મન આમતર, માનવામાં આવે છે. હવે શ્રીગૌતમસ્વામી તૃણ અને મણિના સંબ ધમાં પ્રભુત્રીને પૂછે છે. 'सि भते ! तगाणय मणीणय केरिनए फासे पन्नते' हे सावन् को तृष्ये। અને મણિનો સ્પર્શ કે કહેલ છે ? શું આ કહેવામાં આવનાર અજીનક વિગેરે વસ્તુઓના સ્પર્શ જેવો હોય છે, અને એને સ્પર્શ હોય છે? એ જ मताव छ. 'से जहानामए आईणे इवा एदवा' २३ २५ माथन यम भय पना हाय छे. २३॥ २५॥ ३ ॥ है।छ. 'वृरे इवा' वा २५० सूर नामनी ३५तिने हाय छे. 'णवणीएइवा' २१ २५श मामाने। डाय छे.
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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