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________________ प्रमेयोतका टीका प्र.३ उ.३७.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् - AAJ 'किण्हे किण्हच्छाए' इत्यादि, कृष्णवनषण्डः कस्मादित्यत आह-कृष्णच्छाया निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां पायोदर्शनमिति वचनाद् हेत्वथें प्रथमा, तदयमर्थः, यस्मात् कृष्णा छाया-आकारः सविसंवादितया तस्य वनषण्डस्य, तस्मात् कृष्णो वनषण्डः, अयं भावः-सविसंवादितया तत्र बनषण्टे कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तावमास संपादितसत्ताका सर्वाविसंवादी भवति तस्मात् तत्ववृत्त्या स वनषण्डः कृष्णो न तु भ्रान्तावभासमात्र व्यवस्थापित इति । एवम् 'नीले नीलच्छाए, हरिए हरियच्छाए, सीए सीयच्छाए' नीलो नील. तथा स्वरूपप्रतिपादित हो जाता है किण्हे किण्हच्छाए' वह बनषण्ड कृष्ण इसलिये है कि उसकी छाया-आकार कृष्ण है, यहाँ 'कृष्ण च्छायः' पद में यह प्रथमा विभक्ति हेपर्थ में हुई है 'निमित्तकारण हेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनात्' इस वचन के अनुसार पञ्चम्यन्त हेतु के अर्थ में प्रथमा विभकिन भी हो जाती है । अतः इस से सूत्रकार ने यह पुष्ट किया है कि जिसकारण सर्वाविसंवादी रूप से उसकी छाया आकार-कृष्ण है, इसी कारण वह धनखण्ड कृष्ण है जब सर्वाविसंवादिरूप से वहां कृष्ण आकार उपलब्ध हो रहा है तो नियम से वहाँ कृष्णता है जिसकी सत्ता भ्रान्त अवभास से स्थापित होती है-वह सर्वा विसंवादी नहीं हुआ करता है-यहां कृष्णाकार की सत्ता सर्वाविसंवादी रूप से स्थापित है अतः वह अपने साध्य कृष्णता का अवश्य अवश्य ही साधक होता है इसी प्रकार से वह वनखण्ड किसी २ भाग में नील इसलिये है कि उसकी छाया-आकार-नील 'छ. तनाथी त्यां तेनुपा प्रा२नु प्रतिपाइन थ5 1य छ 'किण्हे किण्हच्छाए' એ વનખંડ કૃષ્ણ એ માટે કહેવાય છે કે તેની છાયા આકારકૃષ્ણ છે. અહીંયા 'कृष्णच्छायः' से पहमा या प्रथम विमति उत्पथमा ये छे. 'निमित्त कारणहेतुषु सर्वासा विभक्तीना प्रायो दर्शनात' मा क्या प्रमाणे ययभ्यन्त હતના અર્થમાં પ્રથમ વિભકિત થઈ જાય છે. તેથી સૂત્રકારે આ વચનથી એ સમર્થિત કર્યું છે કે જે કારણથી સર્વ અવિસંવાદીપણાથી તેની છાયા આકાર કૃણ છે, એ જ કારણથી એ વનખંડ પણ કૃષ્ણ છે, જ્યારે સર્વ પ્રકારે અવિસંવાદિપણાથી ત્યાં કૃષ્ણ આકાર પ્રાપ્ત થાય છે, તો ત્યાં નિશ્ચયરીતે કૃષ્ણપણુ કાળાશ છે જ કે જેની સત્તા બ્રાન્ત અવભાસથી સ્થાપિત થાય છે તે સર્વ પ્રકારે અવિસંવાદિ હાઈ શકતી નથી અહીંયાં કૃષ્ણપણાની સત્તા સવિસંવાદિ પણાથી સ્થાપિત થયેલ છે. તેથી તે પોતાના સાધ્ય કૃણપણાને જરૂર જરૂર સાધક થઈ જાય છે. તેથી જ એ વનખંડ કઈ કઈ ભાગમાં નીલા सी० १०६
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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