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________________ ४ - - जीवामिगम णं उई उच्चत्तेणे' अर्द्धयोजनं द्वे गव्यूते-ऊर्ध्वमुन्चत्वेन 'पंचवणुसयाई विक्खं भेग पश्च पनुःशतानि विष्कम्भेण, इदं परिमाणमेकस्य जाककटकस्य मोक्तम् । जगत्याः प्रायो वडमध्यदेश मागे सर्वत्र जालकानि सन्ति तानि च प्रत्येक मृर्व मुच्चैस्त्वेन द्वे गव्यु से, विष्कम्भेण पञ्चधनु शतानीति । स कीदृशः ? इत्याह'सबरयणामए' सर्वरत्नमयः सर्वात्मना-सामस्त्येन रत्तायो पत्ररत्नात्मकः 'अच्छे सण्हे ळण्हे जाव पडिरूवे' 'अच्छे' अच्छ:-स्वच्छ आकाशवत् 'सण्हे' श्लक्ष्णः 'लण्हे' लण्हः अत्र यावत्पदसंग्राह्याणि पदोनि यथा-'घट्टे महे' घृष्टो मृष्टः 'जीरए' नीरजः 'निम्मले' निर्मळ: 'णिपके' निष्पङ्कः 'णिक कडच्छाए' निष्कङ्कटच्छायः' 'सप्पभे' सपभः 'सस्सिरीए' सश्रीकः 'समरी ए' समरीचः 'स उज्जोए' सोद्योतः 'पासादीर: प्रासादीयः 'दरिसणिज्जे' दर्शनीयः 'अभिस्वे' अमिरूपः 'पडीरूवे' पतिरूपः जाल कटकविशेषणपदानां पूर्ववदेवार्थः स्वयमेवोद्दनीयः ।मू५१॥ मूळम् -तीसे णं जगईए उप्पिं बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं एगा महई पउमवरवेइया पन्नत्ता, सा गं पउमवरवेइया अद्धजोयणं उड्डे उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणा भेणं सबरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे जाव पडिरूवे' यह जालकटकजालसमूहजालपडि दो कोश ऊंचा है और पांच सौ धनुष का विस्तारवाला है । चौडा है यह जाल समूह जगती के प्रायः मध्यभाग में हैं और एक जालका छह प्रमाण कहा गया है । यह जालकटक किस प्रकारका है तो कहते है। 'सम्वरयणामए' यह जालकट सर्वात्मना रत्नमय है । अच्छे है। आकाश एवं स्फटिक रत्न के जैसा परम निर्मल है । इलक्षण है लष्ट है यावत् प्रतिरूप है यहां यावत्पद से 'घट्टे मढे जीरए, णिम्मले, जिप्पं के णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए, सउज्जोए पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरुवे' इन पदों का संग्रह हुआ है इनकी व्याख्या उपर में की जा चुकी है वहां से समझ लेना चाहिये ॥५१॥ જાલ સમૂહ જગતીના મધ્યભાગમાં છે. આ પ્રમાણ એક જાળનું કહેલ છે. मा ४४ रनु छ, ते ४ छे. 'सव्व रयणामए' साल 28 સર્વ પ્રકારે રનમય છે. સ્વચ્છ છે. આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ નિર્મલ છે. २३६५ छ, सष्ट छ, यावत् प्रति३५ 2. महीयां यावत्पथी 'घट्टे मटे णीरए णिम्मले णिप्प के शिक्क ड च्छाए, सापभे, सस्सिरीए समरीए, मउज्जोए, पासादीए, बरिसणिज्जे अभिलवे' मा पानी सडथये छे. मा ५होनी व्याच्या ५२ કરવામાં આવી ગઈ છે. તે તે ત્યાંથી સમજી લેવી. કે ૪૯ છે
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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