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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.४५ देवस्वरूपवर्णनम् ७३५ जाब विहरइ' एवं यथा स्थानपदे घज्ञापनाया द्वितीयपदे कथितं तथाऽत्रापि ज्ञातव्यं यावच्चमरस्तत्र असुरकुमारेन्द्रः अनुरकुमारगनः परिवसति यावद विहरतीति । अत्र-'गोयमा ! जंबूदोवे दोवे' इत्यारभर 'दिवाई भोगमोगाई मुंत्रमाणे विहरइ' इति पर्यन्तं दाक्षिणत्यासुरकुमारवक्तव्यता सर्वाऽपि-प्रज्ञापनायाः स्थानपदोक्ता ग्राह्येति ।मु० ४५|| पूर्व चमरसूत्रे लिहं परिसाणं' इत्युक्तम्, ततश्चपरस्य परिषद्विशेषपरिज्ञानाय सूत्रमाह-'चमरस्त णं भवे ।' इत्यादि, मूलम्-धमरस्त णं भंते! असुरिंदस्त असुररन्नो कई परिसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा! तओ परिलाओ पन्नताओ तं जहा-समिया चंडा जाया, अभितरिया लमिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया च जाया। चमरसल णं भंते! असुरिंदस्त यह पृच्छा शब्द से ग्रहण किया जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे तत्य असुरकुमारि देवा असुरकुमारराया परिवलाइ 'जाब विहरई' हे गौतम इस प्रकार जैला प्रज्ञापना के स्थानपद में कहा गया है वसा ही यहां पर भी जान लेना चाहिये यहां तक कि वक्ष चमर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा रहता है। इसका प्रया वर्णन यहाँ समझना चाहिये यहां तक कि 'गोषमा' 'जंबूद्दीवे दीवे' यहां से लेकर वह चन्नर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा 'दिवाई भोगयोगाई भुंजमाणे विहरई' दिन भोग भोगों का अनुभव करता हुआ रहता है यहां तक दाक्षिणात्य असुरकुमारों का सष वर्णन प्रज्ञारना के स्थान पदोक्त यहां भी समझ लेना चाहिये ।।सूत्र-४५॥ उपस्थित ४२पामा मावत छ. मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री छ एव जहा ठाणपदे जाव चमरे तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ जाब विहरह' હે ગૌતમ આ રીતે જે પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેવામાં આવેલ છે તે જ પ્રમાણેનું કથન અહી યાં પણ સમજી લેવું તે કથન અમર અસુરેન્દ્ર અસુરકુમાર રાજા હોય છે. આટલા સુધીનું પુરે પુરૂં અહિયા સમજી લેવું मर्थात् प्रसुश्री गौतमस्वामीने उत्तर भापता 'गायमा । जवुदीवे दीवे से शप प्रयोगधी मार लानत सभ२ मसुरेन्द्र मसु२पा२ २it 'दिव्याई भोग भोगाई भुजमाणे विहरइ' ०५ an लेागाने। मनुलव ४२ता या त्यां रहे છે. આટલા સુધી દક્ષિણાય અસુરકુમાર દેવેનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેલ તમામ વર્ણન અહીંયા પણ સમજી લેવું ૫ ૪પા - -
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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