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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.१ उ.३ २.३८ एकोषक: मनुजीवानामाकारादिकम् ६०५ आदेयौ अतिसुन्दरौ ललितौ-मनोज्ञचेष्टा कतिौ वाहू यासां तास्तथा 'तवणहा' ताम्रनखाः, ईपद्रक्तनखाः 'मंसलर गहत्था' मोपलाग्रहस्ताः-परिपुष्टकराग्रभागाः 'पीवरकोमलवरंगुलीओ' पीवरकोमलकरालिकाः, पीवरा:-स्थूलाः कोमला. वरा:-प्रमाणलक्षणोपेतस्वेन श्रेष्ठा अंगुलयो विद्यन्ते यासा तास्तथा, 'णिद्ध पाणिलेहा' स्निग्धपाणिरेखाः 'रविससि संखचक्कसोस्थिय सुविभत्त सुविरतिय पाणिलेहा' रविशशिशङ्खचक्र स्वस्तिक सुविभक्त मुविरक्ति पाणि रेखाः, तम रविश शङ्खचक्र स्वस्तिका एव सुविभक्ताः-सुपटा:- सुविरचिताः स्पष्टतया दृष्यमानाः एतादृश्यः पाणिरेखाः यासां तास्तथा, 'पीगुण्णयकक्ख वस्थिदेसा' पीनोन्नत. कक्षनस्तिदेशाः, पीना उपचिता उन्नता अभ्युन्नताः कक्षवरितदेशा कक्षयोः-हस्तमूलाधोभागयोः, बस्तेः-नाभेरधोभागस्य च देशो यासां तास्तथा, 'पडिपुण्णगल्लकवोला' परिपूर्णगल्लकपोलाः, परिपूर्णो मांसलल्धेन स्थूलो गल्लौ गण्डदेशी च यांसां तास्तथा, 'चउरंगुल सुप्पमाण कंत्रुवर सरीसगीदा' चतुरगुल सुममाण कम्बुवर सदृशग्रीवाः चतुरगुलं-चतुरङ्गुलपमितं सु-सुष्टु शोभनं माणं यस्याः सा तथा कम्वुवरेण प्रधानशङ्खन सहशी छन्नतया बालत्रययोगेन च प्रधानशङ्ख. तुल्या ग्रीवा यासां तास्तथा, 'मंसलसंठिय पसत्थहणुया' मांसलसंस्थित प्रशस्तह. नुका:-मांसलं पुष्टं संस्थित शुभाकार प्रशस्तं च हनुकं चिबुकं यासां वास्तथा नत-नम्र झुके हुए होते हैं आदेय अति सुन्दर होने से उपादेय होते हैं और ललित मनोज्ञ चेष्टा से युक्त होते है । 'तंदणहा' इनके नख ताम्र होते हैं-कुछ२, ललाई लिये हुए होते हैं ' मंलग्न हत्था' इनका पंजा मांसल-पुष्ट शेता है 'पीसकोमलवरंगुलीओ' इनकी अंगुलियां पीवर-विशेष-मजबूत होती है कोमल होती है एवं उत्तम होती है, 'णिद्धपाणिलेहा' इनके हथेलियों में जो रेखाएं होती हैं-वे स्निग्ध होती हैं 'रवि ससि संखचक्क सोस्थिय सुविभत्त स्तुविरक्ष्य पाणिलेहा' इनकी हथेली मांसल-पुष्ट होती है सुन्दर आकार की होती है और हथेली में નમેલા હોય છે. આદેય અર્થત અત્યંત સુંદર હાવાથી ઉપાદેય અર્થાત મનને गर्भ तवा डाय छे. सन सरित हितो भनाज्ञ थेट प. उाय छे. 'तंबणहा' तेयाना न त ele हाय छे, अर्थात् ४४४ ४ सातिमा प. डाय 8. 'पीवरकोमलवर'गलीओ' तयानी मागणीसा पावर विशेष भरभूत डाय छे. मिस डाय . अन उत्तम होय छे. “णिपाणिलेहा' भनी यति ચામાં જે રેખાઓ હોય છે, તે નિ સુંવાળી હોય છે. સુંદર આકારવાળી खाय छे. सन प्रशस! ३२१॥ येोय होय छे. 'रवि सिसंखचक्कसोस्थिय सुनिरक्ष्य पोणीलेहा' तमनी हथेली मांसद पुष्ट होय छे. सुं२ मारनी होय ले,
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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