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________________ ६०० जीवामिगमस्वं लसोणी' अष्टापदवीचि पसंस्थित प्रशस्त-विस्तीर्ण पृथुलश्रोणया, वीचिविगत घुणाधक्षत एवं विधो योऽष्टापदपट्टा धूत फलकपट्टः तद्वत् संस्थिता तत्सदृश संस्थानवली प्रशस्ता सुन्दरा विस्तीर्णा पूर्वापरभागविस्तारयुक्ता पृथुला-स्थाश्रोणि:-कटेर नमामो यासां तास्तथा 'वदणायामप्पमाणदुगुणित विसामसळ मुबद्ध जहण वरधारणीओ' वदनायाममयाण द्विगुणिन विशालमंसल सुबद. जघनवरधारिण्यः, तत्र वदनायामप्रमाणस्य-मुखदैर्य द्वादशाङ्गुलममाणं तस्माद द्विगुणितं द्विगुणं-चत विशत्यङ्गुलं विशालं घिरतीर्ण मांसलं पुष्टं सुबद्धम् अीव सुबद्धावयव न तु एतादृशं जघनवरं-वरजघनद्वयं धारयन्ति एवं शीला यास्तास्तथा, 'वज्जविराइय पसस्थलवखण गिरोदरातिवलिबलिय तणु णमिय मज्झि गयो' वन विराजिन प्रशस्तलक्षण-निरुदरा त्रिवळिचलितनुनमितमध्यिकाः न पिहल लोणी' इमकी श्रोणि-कमर के पीछे का भाग धुण आदि से अक्षत जो अष्टापद-धून फलफ उसके पृष्ठ के आकार जैसी होती है प्रशस्त होती है विस्तीर्ण होती है और लम्बी होती है-तथा-मोटी होती है 'वदणायामप्पमाण दुगुणित विसाल मंसल सुपद्ध जहणवर धारणीओ' बारह अंगुल मुख प्रमाण से द्विगुणित-चौबीस अंगुल प्रमाण इनका जघन प्रदेश होता है और यह विशाल, मांसल एवं सुबद्ध होता है स्नायुयों से अच्छी तरह जकड़ा हुआ रहता है 'वज विराइय पसत्यलम्वणिरोदरा' ये अल्पोदर वाली याचिकृत उदर से हीन होती हैं, उनका यह उदर क्षाम होने ले कृश-होने से बज्र की तरह सुशोभित होता है तथा सामुद्रिक शास्त्रोक्त प्रशस्त लक्षणों से युक्त होता है 'लिवलो बलियतणुणमिय मज्झितो उजुघ सम सहित डाय छे. 'अठ्ठावयवीची पट्ट सठिय पनत्थ वित्थिन्न पिहुलसेणी' तमानी श्रेष् એલે કે કેડની પાછળ ધુ વિગેરેના ક્ષત વિનાની જે અષ્ટાપદ ઘન ફલકના પૃષ્ઠના આકાર જેવી હોય છે. પ્રશરત હોય છે. વિરતીર્ણ હેય છે અને मी हाय छे तथा भाटी डाय छे. विदगायामप्पमाणदुगुणित विसाल मसल सुबद्ध महणवर धारणीओ' मार Hina भुभ प्रभागुथी नभए२.वीस આગળ પ્રમાણને તેઓને જઘન પ્રદેશ હોય છે. તે સ્નાયુઓથી સારી રીતે ४४.2 २ छ. 'वज्जविराइयपसत्थ लक्खणणिरोदरा' तो म५४२ વાળી અને વિકૃત ઉદરથી રહિત હોય છે તેઓનું આ ઉદર ક્ષામ હોવાથી કૃશ હોવાથી વજની જેમ સુશોભિત હોય છે, તથા સામુદ્રિક शालेत प्रशस्तक्षथी युत सय छे. तिवलिवलियतणुण मगमज्झियातोज उज्जुयसमसहित जच्च तणुकसिणणिद्ध आदेजलउड् सुविभत्त सुजाय
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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