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________________ ५७२ जीवाभिगमस्त्र गूढगुल्फा, संस्थिता-सम्यकू स्वरूपप्रमाणतया स्थिती मुश्किटौ-मुघनी गृढौ मांसलत्वादनुपलक्ष्यो गुल्फो-घुटिको येषां ते तया, 'एणीकुरुविदावत्त वहाणुपुनजंघा' पणीकुरु विन्दावर्त्तवृत्तानुपूर्यजत्राः' तत्र एणी-हरिणी, कुरुविन्दःतृणविशेषः, वर्त मूत्रवलनकम्, एतानीववृत्ते-वर्तुले आनुपूयेण-क्रमेण अर्व स्थूलत रे जंघे येषां ते तथा, 'समुग्गणिमग्ग गूढ जाण' समुद्गक निमग्नगूढ जानवः समुद्गनिमग्ने संपुटान्तः स्थिते इव मांसलत्वादनुपलक्ष्ये जानुनी येषां ते तया, 'गयससण सुजात-सण्णिभोर' गजश्वसनमुजातसन्निमोरवा, गजस्य हस्तिन: श्वसन:-शुण्डादण्ड: मुजात:-मुनिष्पन्नः तस्य सन्निमी-हल्यो ऊरू-जंधे येषां ते तथा, 'वरवारणमत्ततुल्ल विक्कम विलासितगई' चरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः, तत्र परम्-धानो भद्रजातीयो यो मत्तवारणो हस्ती तस्य विक्रमश्चक्रमणं तद्वत् विलासितं विलास संजातो यस्य, विलासिता विलासक्ती गतियेषां ते तथा, 'सुजातवरतुरगगुज्झ देसा' सुनातवरतुरगाह्मदेशाः वरतुरगस्येव गुल्फ-टुकने-घमाणोपेत होते हैं सघन होते हैं, मांसल होने से गूद होते हैं वे अलग दिखने में नहीं आते हैं 'एणी कुमविंदावत्तवट्टाणु पुग्धजंघा' इनकी दोनों जंघाएं हरिणी की जांघों जैसी क्रमशः स्थूलस्थूलतर होती हैं और कुरुविन्द नाम के तृण विशेष और वर्त-घटे हुए सूत की रस्सी के जैसी गोल होती हैं तथा दोनों जानु-घुटनेंइनके मांसल होने से समुद्ग-संपुट में रखे हुए की तरह अनुपलक्ष्यनहीं जाना जासके ऐसा होते हैं 'गयससणसुजातसणिभोरू' इन के दोनों उरु हस्ती के शुण्डादण्ड के सम्मान सुन्दर गोल और पुष्ट होते हैं 'वरधारणमत्ततुल्ल विक्कमविलासिथ गई' मदोन्मत्त हाथी के समान घलनेके विलास से युक्त इनकी गति होती है 'सुजातघरतुरगगुज्झदेसा' इनका गुह्य प्रदेश श्रेष्ठ घोड़े के गुह्य प्रदेश के હોય છે. સઘન હોય છે. માસલ “પુષ્ટ હોવાથી ગૂઢ હોય છે. તેઓ અલગ हमपामा भावती नथी. 'एणीकुरूविदावत्तवद्राणुपुत्वजधा' तेमनी मन्त । હરિણાની જાંઘે જેવી ક્રમશઃશૂલ અને સ્કૂલતર ચઢઉત્તરની હોય છે. તથા કુરૂવિંદનામના તૃણ વિશેષ અને વર્ત–વણેલા સૂતરની ડેરીના જેવી ગેળ હોય છે. તથા તેમના બને છેઠણે માંસ યુક્ત હોય છે. સમુદ્ર-સંપુટમાં રાખેલાની भान ll न शय थे। हाय छे. 'गयसण सुजातसण्णिभोरू' तेसोना બને ઉરૂઓ હાથીની ગુંડાદંડના જેવા સુંદર અને ગોળ તથા પુષ્ટ હોય છે, 'वरवारण तत्ततुल्लविक्कम विलासियगई' मन्मत्त साथीना सेवा विसास युक्त तमानी गति डाय छे. 'सुजातवरतुरगगुज्झदेसा' तमानी शुद्ध प्रदेश ४
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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