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________________ ५५६ जीवामिगमसूत्रे परिणयाए भृसणविहीए उबवेया' अनेक व्हुविविध विस्रसापरिणतेन भूपणविधिनोपेता:-युक्ताः, फलैपूर्णा 'विसति' दलन्ति-विकसन्तीत्यर्थः, 'कुसविकुस वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षाला मूलवन्तः कन्दवन्तः यावत् मासादीया दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपास्तिष्ठति । इत्यष्टमकल्पवृक्षवर्णनम् ।८। ___ 'एगोरुयणं दीवे तत्थर' एकोषकद्वीपे तत्र तत्र खलु 'वहवे गेदागारा णाम दुम गणा पण्णत्ता समणाउसो!' बहवः गेहाकारा नाम द्रुमगणाः कल्पवृक्षाः प्राप्ताःकथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! 'जहा से' यथा ते 'पगारट्टालग चरियदारगोपुर बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा अणेग बहुविविहवीससा परिणताए भूसणविहीए उववेया कुस वि० जाव चिटुंति' और कनक निकर मालिका, ये सब ही आभूषण हैं और ये कितनेक सुवर्ण की रचना से, कितनेक मणियों की रचना से और कितनेक रत्नों की रचना से चित्रित सुंदर होते हैं। इनकी जातियां अनेक प्रकार की होती है। इसी प्रकार से ये मण्यङ्गनाम के कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार की भूषण जातियों के रूप स्वतः स्वभाव से परिणत हो जाते हैं बाकी के 'कुस विकुस' आदि पदों का अर्थ स्पष्ट है ॥८॥ ९ नौवें कल्पवृक्ष के स्वरूप का वर्णन 'एगोरुय दीवे तत्थ २' उस एकोरुक नामक द्वीप में जगह २, 'बहवे गेहागारा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' हे श्रमण ! आयुष्मन् ! अनेक गेहाकर नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं। वे किस प्रकार के होते हैं वह दृष्टान्त ले समझाते हैं-'जहा से पागारहालग यगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणताए भूसणविहीए उववेया कुसविकुस जाव चिटुंति' मने उन नि४२ भाति, म मया माभूषर વિશેષ જ છે. અને તે પૈકી કેટલાક સેનાની રચનાથી તથા કેટલાક મણિચોની રચનાથી અને કેટલાક રોની રચનાથી ચિત્ર વિચિત્ર સુંદર જ ય છે. તેની અનેક પ્રકારની જાતે હોય છે. એ જ પ્રમાણે આ મહેંગ નામના કલ્પવૃક્ષો પણ અનેક પ્રકારના ભૂષણેના રૂપથી સ્વતપોતાની મેળેજ એટલેકે સ્વાભાવિક રીતે જ પરિણત થઈ જાય છે. બાકીના કુશ વિકુશ વિગેરે પદેને અર્થ સ્પષ્ટ છે૮ 6 नवमा ४६५वृक्षना २१३५नु न ४२वामां आवे छे. 'एगोरुय दीवेणं दीवे तत्थ तत्य' से ३४ नामना द्वीपमा स्थणे स्थणे 'बहवे गेहा गारा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउनो' श्रमर मायुभन् ! गडा२ न'भना અનેક ક૯૫વૃક્ષે કહેવામાં આવેલ છે. તે કેવા પ્રકારના હોય છે તે દૃષ્ટાંત द्वारा सूत्रा२ मताव छे. 'जहा से पागारट्रालगचरियदार गोपुर पामाया
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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