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________________ ज्योतिषिक देवाधिदेव प्रमेयधोतिका टीका म.३ उ.३ ७.३४ एकोस्कद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५३५ ___ भय पञ्चमकल्पवृक्षस्वरूपमाह 'एगोरुय दीवे' इत्यादि 'एगोल्य दीवेणे' एको. सक द्वीपे खलु 'तस्थ २' तत्र तत्र देशे 'वहवे-'जोइसियाणामदुमक्षणा पण्णता समणाउसो' बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता:-कषिताः, हे श्रमण आयुष्मन् ! ज्योतींषि ज्योतिषकाः देवाः से एव ज्योतिषिकाः, अब ज्योतिषिक शदेन ज्योतिष्क देवाधिपतित्वात् सूर्य प्रत्यते सूर्य प्रकाशकारित्वेन वृक्षा अपि ज्योतिषिकाः कीदृशास्ते ? तबाह-'जहा से अधिकागयसरय सरमंडल पड़त. उक्कासहस्सदिपंतविज्जुज्जालहुयवहनिर्धमजलिय निद्धंत धोयतत्त तवणिज्ज किन्नु पाप्सोयन वाकुसुम विमउलिय पुनमणिर षणकिरण मञ्च हिंगुलयणिगर रूचावैसे ही वे कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं ।।। पांचवें कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन _ 'एगोरुय दीवेणं उस एकोरुक नाम के द्वीप तथ्य २' जाह २ 'यहवे जोतिरिया णाम दुमक्षणा पता अनेक ज्योतिषिक नाम के द्रुमगण कल्पवृक्ष-कहे गये हैं यहां ज्योतिषिक शब्द से ज्योतिषित देव लिये जाते हैं यहां ज्योतिषिक देवाधिपति सूर्य होने से सूर्य गृहीत हुआ है जैसा सूर्य सर्वत्र प्रकाश करता है वैसा ही प्रकाश ये ज्योतिपिक कल्पवृक्ष भी करते हैं-अतः प्रकाशकारित्व की समानता को लेकर इन पृक्षों का नाम भी ज्योतिषिक ऐला हो गया है ऐसे वहां ज्योनिषिक नामक द्रुमगण हैं-हे श्रमण आयुष्मन् ! वे कैसे हैं ? उनका वर्णन करते हैं-'जहा से अचिरुग्णयसरयसूरमंडलपडतासहस्त दिप्पल विज्जुनालहुयवह निर्धमजलिय निद्धंन धोयत्तत्ततवाणिज्ड मिसुथा પ્રમાણે આ કલપવૃક્ષ પણ અનેક પ્રકારના હોય છે. ૪ पायमा वृक्षना स्व३५नु वे ४थन ४२वामां आवे छे. 'एगोव्य दीवेणं' ते ३४ नामना द्वीपमा 'तत्थ तत्थ' स्थणे स्थणे 'ववे जोतिसिया णाम दुमगणा पण्णत्ता' अन यातिषि नामना भग ४५वृक्ष द्या छ. गडियां તિષિક શબ્દથી તિષિકદેવ લેવામાં આવેલ છે. અહિયાં તિષિક દેવના અધિપતિ સૂર્ય હોવાથી સૂર્યને ગ્રહણ કરાયેલ છે. સૂર્ય જે પ્રમાણે સર્વત્ર પ્રકાશ કરે છે. એ જ પ્રમાણેનો પ્રકાશ આ તિષિક નામના ક૫ વૃક્ષો પણ કરે છે. તેથી પ્રકાશ કે રિતાના સમાન પણને લઈને આ વૃક્ષેના નામ પણ જ્યોતિષિક એ પ્રમાણે થયા છે એવા એ જોતિષિ; નામના દ્રગણ છે है श्रभर मायभन् । सेवा छ ? तनु वय न ४२वाभा भाव छ, 'जहाले अविरुग्गय सरय सूरमडलपडत उक्कासहस्सदिप्प विज्जुज्जालहवह निद्रमअलिय निदंत घोयतत्ततवणिज्ज फिस्रयासोयजवाकुसमविमउलियजमणिरयण
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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