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________________ जीवामिगम स्वभावत एव परिणाम प्राप्तेन मद्यविधिना वोक्त रसविधिना उपपेताः युक्ताः पुनश्च 'फलेहि पुण्णा' फलैः पूर्णा संभृताः सन्तः 'दिसटुंति' दलिधातुः चूर्णी. करणे विकासे च तत्र दर्तमानादळेः 'दलिपल्पोर्विसहवंफौ' 'माकृत व्याकरणे८-४-१७६' इति सूत्रेण दलेर्धातोः विसदादेशः अतो विसति' इत्यस्य दलन्ति-विकासन्ती-त्यों बोध्य एवमग्रेऽपि । 'कुसविकुस विसुद्धरुक्खमला जाव चिटुंति' कुशविकुश विशुधवृक्षमूलाः यावच्छन्देन-मूळकन्दादिमन्तः प्रसाद नीया अभिरूपा प्रतिरूपास्तिष्ठन्तीति । ___अथ द्वितीयकल्पवृक्षजातिस्वरूपमाख्यानुमाह-'एगोरुयदी इत्यादि, 'एगोरूव दीवे तत्थर, एकोलकद्वीपे खलु तत्र तत्र देशे 'वहवे मिगंगया णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' बहवो भूगडा नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ताकथिताः हे श्रमण आयुष्मन् । तत्र भृतं भरणं पूरणमित्यर्थः तत्र भरणे बहुत और विविध-नाना प्रभारक जाति भेद को लेकर अपने स्वभाव से ही ये वहां अनादि काल से रहते हैं ये लोकपाल आदि के लगाये हुए नहीं होते हैं। वे स्वाभाविक रूप से परिणत ऐली मद्य विधि से युक्त होते हैं। वे 'फलेहि पुण्णा' फलों से लदे हुए 'घिस्दृति' विक सित होते रहते हैं। और 'कुमविकुल चिसुद्धरुक्खमूला' इन वृक्षों के मूल दर्भ आदि घाम से विशुद्ध-रहित होते हैं ऐसे थे मत्तांग द्रुमगण प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप होते हुए वहां रहते हैं। यह मत्तांग नाम के प्रथम कल्पवृक्ष का वर्णन हुआ ॥१॥ द्वितीय जाति के कल्पवृक्ष का स्वरूप इस प्रकार से है 'एगोरुष दीवे तत्य २, बहवे गिंगया णाम दुमगणा पण्णत्ता' हे श्रमण आयुष्मन् ! उम्स एगोरुक नाम के द्वीप में जगह २, अनेक भृत्ताङ्ग नाम के कल्पवृक्ष हैं ये कल्पवृक्ष वहां के निवासी मनुष्यों को अनेक प्रकार विहीए उववेया' अने: व्यतिना था विविध मन माना जति ભેદને લઈને પિતના સ્વાવથીજ તે અનાદિ કાળથી ત્યાં રહે છે. આ લોકપાલે વિગેરેએ લગાવેલ હોતા નથી. તેઓ સ્વાભાવિક રૂપથી પણિત એવી મધ विधि (प्रमोहनxal)थी यु. डाय छे. मने 'कलेहिं पुण्मा' जोशी हायेan 'विसट्टति' विस्ति यता २ छ. मने 'कुमविकुसविसुद्धरु- खनृला' या वृक्षाना મૂળ દર્ભ વિગેરે ઘાસથી વિશુદ્ધ રહિત હોય છે. એવા આ મત્તાંગ કુમગણું પ્રાસાદીય, દર્શનીય, અભિરૂપ, અને પ્રતિરૂપ હોય છે. અને ત્યાં રહે છે. આ મત્તાંગ નામના પહેલા ક૯પ વૃક્ષનું વર્ણન થયું. એ ૧ | वे भी ततना ४५वृक्ष २१३५ मतावामा भाव छे. 'एगोरुय दीवे तत्थ तत्थ भिगंगयाणाम दुमगणा पण्णत्ता' 3 श्रम मायुधमन ! त
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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