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________________ - जीवामिगमस्त्र GsĆ समबहता समवहतो नाम वेदनादि समुद्घात क्रियाविशिष्टो न तु परिपूर्णसमवहतो नापि सर्वथा असमवहतः 'अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्धलेग्यं देनं देवि अणगारं' अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पास जानाति सामान्यता, पश्यति विशेषरूपेणेति मश्नः, भगवानाह-'हे गौतम ! 'णो इणटे सम?' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्यतया यथावस्थितवस्तु परिच्छेदस्याशक्यत्वा. दिति ५। 'अविसुद्धलेरसे अणगारे' अविशुद्धलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः, 'समोहया समोहरणं अप्पाणेणं' समवहता समवहतेनाऽऽत्मना 'अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्रलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पासइ' जनाति सामान्यरूपेण, पश्यति विशेषरूपेणेति षष्ठः प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' हे गौतम । होतो है कारण इसका ऊपर में बताया जा चुका है। 'अविसुद्धलेस्सेर्ण भंते ! अणगारे समोहया समोहएर्ण अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि जाण पासह' हे भदन्त ! अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेद नादि समुद्घात क्रिया से कुछ विशिष्ट है वेदना आदि समुद्घात से कुछ रूप से विशिष्ट नहीं भी है ऐसा वह समवहतासमवहतात्मावाला साधु क्या अविशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है-हे गौतम ! 'नो इणढे समढे' यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योकि यथार्थ दर्शन ज्ञानका उसको अभाव रहता है 'अविसुद्धलेस्ते अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अनगारं जाणइ पासा' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्यावाला है और वेदनादि समुद्घात से विशिष्ट और अविशिष्ट भी है तो क्या ऐसा वह अनगार स्वयं के द्वारा विशुद्ध भयेर छे. ते प्रमाणे सभ दे, 'अविसुद्धलेस्सेणं भाते ! अणगारे समोहया समोहएण अप्पाणेणं अविसुद्धलेरस देव देवि जाणइ पासइ' से भगवन् २ અણુગાર અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળો હોય છે, અને વેદના વિગેરે સમૃદુધાત ક્રિયા થી કંઇક વિશેષ છે, અને કંઈક અંશથી વેદના વિગેરે સમદુઘાતથી વિશેષ ન પણ હોય, એ તે સમવહતાસમવહતાત્મા વાળે સાધુ અવિશુદ્ધ લેશ્યા વાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા અણગારને જાણે છે કે દેખે છે ? આ प्रश्न उत्तरभां प्रभुश्री गौतमकामी ४ छ । गौतम ! 'णो इणद्वे समट्टे' समय पर नथी. म यथाथ ४श' ज्ञानना तेन मला हाय छे. 'अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहया सम हएणं अपाणेणं अविसुद्धलेस्स देव' देवि अणगार जाणइ पासई' सावन् ! २ मार विशुद्ध वेश्या - વાળ હોય, અને વેદના વિગેરે સમુદ્રઘાતથી વિશિષ્ટ અને અવિશિષ્ટ પણ
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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