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________________ जीवामिगमस T 3 उत्कृष्टपदेऽपि भवन् वनस्पतिकायिकानामनन्तानन्तत्वात् । 'दव्यमवण फड़काइयाण नत्थि निल्लेवणा' प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिकानामनन्तानन्ततया निर्लेपना नास्तीति । 'चडुप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा' मत्युपन्नत्र सकायिकाः खल भदन्त ! कियता कालेन निर्लेपा भवन्तीति प्रश्नः भगवानाह - हे गौतम! 'जहण्णपदे सागरोवमस्य पुहुचस्स' जघन्यपदे सागरोपमशतपृथक्त्वेन निर्लेपा भवन्ति 'उक्कोसपदे सागरोवमसय पुहुस्स' उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतपृथवश्वेन निर्लेपा भवन्ति। नवरम् 'जगदा उक्कोसपदे विसेसाहिया' जघन्यपदादुत्कृष्ट सर्वदा अनन्तानन्त उत्पन्न होते रहते हैं। इसी कारण 'पटुत्पन्नवणकर काइया णं नरिथ निल्लेवणा' प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों की निळेपना नहीं होती है क्यों कि वे अनन्तानन्त उत्पन्न होते रहते हैं 'पड़ पत्नतसकाइयाणं पुच्छा' हे भदन्त ! प्रत्युत्पन्न कायिक जीव लेपरfe कितने काल के बाद होते है अर्थात् जिस किसी विवक्षित समय में कम से कम और अधिक से अधिक जितने त्रस कायिक जीव उत्पन्न होते हैं वे यदि एक-एक समय में एक-एक जीव अपहृत किये जावें तो कितने काल में वे पूरे अपहृत हो पावें ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं - हे गौतम! 'जहण पदे सागरोवममयपुत्तस्स, उक्कोसपदे मागरमलय पुहृत्तस्म' वे प्रत्युन्न त्रस कायिक जीव जघन्य पद में और उत्कृष्ट पद में इतने अधिक होते है कि यदि उन्हें एक-एक समय में एक-एक जीव के अपहृत किया जावे तो पूरे अपहृत करने में सागरोपमशन पृथक्त्व अर्थात् एक सौ सागरोपन से लेकर नौ सौ सागरोपम तक का काल समाप्त हो जावे 'जहन्नपयो उनकोस पर એ જ છે કે વનસ્પતિ કાયિક જીવ અમુક વિવક્ષિત કાળમાં સદા અનંતાनत उत्पन्न थता रहे छे और 'पडुत्पन्नवण फइकाइयाण नत्थि निल्लेवणा પ્રત્યુત્પન્ન-વર્તમાન કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલા વનસ્પતિ કાકિ જીવેાની નિલે પના थती नथी. डेभ} तेथे। अनंतानं'त उत्पन्न थता रहे छे. 'पडुप्पन्नतसकाइयाण પુચ્છા' હું ભગવત્ પ્રત્યુત્પન્ન સકાયિક છત્ર કેટલા કાળ પછી લેપરહિત થાય છે ? અર્થાત્ જે કૈાઇ વિવક્ષિત કાળમાં એછામાં એછા અને વધારેમાં વધારે જેટલા ત્રસ કાયિક થવા ઉત્પન્ન થાય છે, જે તે બધા એક એક સમયમાં મહારકહે દેવામાં આવે, તે તે બધા કેટલા સમયમાં પૂરેપૂરા અહેર કહાડી શકાય ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ जगपदे सागरोवमसयपुहुत्तस्स उकोस्रपदे सागरोत्रमसयपुहुत्तस्स' ते प्रत्युत्पन्न
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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