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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ६.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४६७ पृथिवीकायिक सामान्य रूपोऽत एव जातावेकवचन नतु व्यक्त्ये करवे एकवचन मिति, 'पुढवीकाइयत्ति कालओ केवच्चिर होई' पृथिवीकायिक इति पृथिवीकायिकत्वरूपेण कालतः कियश्चिरं भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सगढ़' सौदा सर्वकालं यावत् पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकरूपेण भवति पृथिवीकायिकसामान्यस्य सर्वदैव सद्भावादिति । 'एवं जाव तसकाइए' एवं यावत् त्रसकायिकः अत्र यावत्पदेन-अप्तेजोवायुचनस्पतिपुढवीकाइयत्ति कालओ केवच्चिरं होई' हे सदन्त ! पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिक रूप से कब तक रहता है ? अर्थात् पृथिवीकायिक जीव की कायस्थिति का काल शितना है ? इस के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा ! लक्षद्धं' हे गौतम पृथिवीकायिक जीव पृथिवी कायिक रूप से चर्व काल वर्तमान रहता है यहां पृथिवी शायिन पद से सामान्य पृथिवी काधिक जीव ही ग्रहीत हुआ है और इसी कारणयहां जाति की अपेक्षा से स्त्रकार ने सूत्र में 'पुढशीहाइए' ऐसा एक वचन का प्रयोग किया है व्यक्ति की अपेक्षा लेकर एकवचन का प्रयोग नहीं किया है । ऐले कोई ला भी समय नही हुआ है, और न ऐसा वर्तमान में हैं और न भविष्यत् में ऐला समय रहेगा कि जिसमें सामान्य पृथिवीकायिक जी न रहा हो क है, और न होगा सामान्य पृथिवीकायिक जीव सर्वदा इस संसार में धर्तमान हर एक क्षण में रहता है एवं जाव तसाहए' इसी तरह से सामान्य अकायिक की, सामान्य तेजल काधिक की सामान्य वायुकाधिक की लामान्य नस्पति છે પૃથ્વી કાવિક પણાથી, કયાં સુધી રહે છે ? અર્થાત્ પૃથ્વીયિક જીવની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલે કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४ छ में 'गोयमा! सव्वद्ध' हे गौतम ! पृथ्वी।यि १ पृथ्वीय પણાથી સર્વકાળ વર્તમાન રહે છે. અહિયાં પૃથ્વીકાયિક પદથી સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જીવેજ ગ્રહણ થયા છે, અને એ જ કારણે અહિયાં જાતિની અપેક્ષાથી એક વચનને પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે. વ્યક્તિની અપેક્ષાથી એક વચનને પ્રયોગ કરવામાં આવેલ નથી. એવો કેઈ પણ સમય થતું નથી, તેમ વર્તમાનમાં પણ એવું નથી. ભવિષ્યમાં પણ આ સમય રહેશે નહીં. કે જેમાં સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જી રહ્યા ન હોય. તેમ નહી હશે. સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જીવે આ સંસારમાં સદા સર્વદા દરેક ક્ષણમાં વર્તમાન રહે છે. 'एव जाप तमकाइए' मा प्रमाणे सामान्य मायिनी, सामान्य
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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