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________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू.२९ संसारसमापन्नकजीवनिरूपणम् ४५१ तहेब निरवसेसं भाणियव्यं' एवमेव यथा मज्ञापना पदे कथितं तथैव निरवशेषं भणितव्यम् समग्रमपि घज्ञापना सूत्रस्य प्रथमं प्रज्ञापनाख्यं पदं वक्तव्यमिति । कियत्पर्यन्तं प्रज्ञापनापकरणं वक्तव्यं तत्राह - 'जाव' इत्यादि, 'जाव वणण्फ इकाइया' यावद्वनस्पतिकायिकाः पृथिवीकायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्तजीवानां भेदो निरूपणीय इति । एवं जाव जत्थे को तत्थ लिय संखेज्जा' एवं यत्रैको जीव स्वत्र संख्ये याः जीवा भवन्ति, 'सिय असंखेज्जा' यत्रैको जीव स्तत्र ग्युरसंख्येयाः, 'सिय अनंता' स्युरनन्ता जीवा स्तत्र वनस्पतिकायापेक्षयेति । 'सेत्तं वणस्सइकाइया' ते एते वनस्पतिकायिका इति । स्थावरकायिकान् पञ्चविधान् निरूप्य कायिकान् निरूपयति- 'से किं वं उसकाइया' अथ के ते सकायिकाः, पण्णवणा पदे तहेव निरवलेलं आणियच्च' ऐसा ही वर्णन प्रज्ञापना के प्रथम पद में किया गया है । वैसा ही सब वर्णन यहां पर भी कर ना चाहिये यह वर्णन वहां पर 'जाव वणष्कर काइया' वनस्पतिकायिक तक किया गया है अतः वहां तक का यह वर्णन यहां पर करने को कहा गया है 'एवं जाव जत्थेगो तत्थ सिय संखेज्जा' जहां पर एक जीव होता है - वहां पर संख्यात जीव भी हो सकते हैं। तथा 'सिय असंखेज्जा' असंख्यात जीव भी हो सकते हैं । तथा 'सिय अनंता' अनन्त जीवों के होने का कथन वनस्पतिकायिक जीवों की अपेक्षा से किया गया जानना चाहिये 'से तं वणफइकाइया' यह वनस्पति कायिक जीव का निरूपण हुआ । स्थावर कायिक जीवों का निरूपण करके अब सूत्रकार त्रलकायिक जीवों का निरूपण करते हैं इसमें श्रीतम ने प्रभुनी से ऐसा पूछा है पदे तव निवरसेसं भाणियव्व' ४ प्रभाषेनुं वर्धुन अडियां यषु समल सेवु, लेडोमा वागुन त्यां 'जाव वणफइकाइया' वनस्पति अनि स्थन पर्यन्त કરવામાં આવેલ છે. તેથી ત્યાં સુધીનું આ વન અહિયાં પણુ સમજી લેવુ' तेभ े, 'एवं जाव जत्थेगो तत्थ सिय स खेज्जा' नयां शेड लव होय छे, त्यां संख्यात कवी यासु हो राडे छे तथा 'सिय अनंता' अनंत लवे! પણ હાઈ શકે છે. આ સખ્યાત અસખ્યાત અને અન ત વ હાવાના સબંધનું કથન વનસ્પતિકાયિક જીવાની અપેક્ષાથી કહ્યુ છે તેમ સમજવુ. 'सेत्तं वण फइकाइया' मा अभाये वनस्पति अलिवोनु निश्थ કરવામાં આવેલ છે. વનસ્પતિકાચિક જીવાતું નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર ત્રસકાયિક જીવે નુ’ निश्चय रे माभां श्रीगीतमस्वामी प्रभुश्री ने मे' पूछे छे डे ' से कि
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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