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________________ - प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम् ४२९ एवमेव-उक्तप्रकारेणैव उसस्थावरजीवाधिकाररूपप्रकारेणैव 'सपुवावरेण' 'सपूर्वापरेण पूर्वचापरं चेति पूर्वापरम् पूर्वाप रेण सहितं सपूर्वापरं तेन, पूर्वापरोक्त समस्त जीव पर्यालोचत्रया इत्यर्थः । 'आजीदिलुतेणं' आजीवदृष्टान्तेन, आ-सामस्स्येन जीवा अजीवा सकललोकाभिव्याप्त्या स्थिता बस स्थावररूपा जीवा, तेषां दृष्टान्तेन समस्तलोकव्यापि जीवनिदर्शनेन, तत्र सा-द्वित्रि-चतुस्तियंपञ्चेन्द्रिय-नारक-देव-मनुष्याः स्वस्वापेक्षया अनुक्रमेण प्रत्येक द्वि-द्वि-द्वि-चतु-श्चतु-श्चतु-चतुर्दशलक्षसंख्यामाश्रित्य द्वात्रिंशल्लक्षसंख्यकाः (३२) स्थावरा:-पृथिवी-जल-तेजो-वायु-वनस्पतयः स्वस्वापेक्षयाऽनुक्रमेणप्रत्येकं सप्त-सप्त-सप्त-सप्त-सप्त-चतुर्दिशति लक्षसंख्यामाश्रित्य द्विपञ्चागई है-इस तरह के कथन से-त्रा और स्थावर की योनियों की पूर्वा पर परिगणना से समस्त लोक ले जीवों की चौरासी लाख योनियां हो जाती हैं. यही घात 'एवमेव सपुधावरेण अजीविदिहते णं चउरसीह जाइ कुल कोडी जोणी पमुहलवाहाला अवंती विलमक्खाया' इस सूत्रपाठ द्वारा समझाई गई है-यहाँ ध्याजीव दृष्टान्त से अर्थात् समस्त लोक स्थित जीवों की अपेक्षा से चौरासी लाख जाति कुल कोटियां कही है वह इस प्रकार-स जीव घसीह लाख होते हैं जैसे दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख तिर्यकू पन्द्रिय, चार लाख नारकी चार लाख देव और चौदह लाख मनुष्य जातियां, ऐसे बत्तीस लाख अल जीच है (३२) एवं स्थावर जीव ५२ पावन लाख होते हैं जैसे-सात लाख पृथिवी काय ७, सात लाख भने त्राय मा मे ४ ४ायामा मतभूत थ य छे. मे०४ पात 'तसकाए चेव थावरकाए चेव' २॥ सूत्र५४थी प्रगट ४२वाभा मावेस छ. मा घाना કથનથી બસ અને સ્થાવરોની ચનિયેની પૂર્વાપર ગણના કરવાથી સઘળા જીની यानि ८४००००० यार्याशासाम यानियो य य छे. म४ पात 'एवमेव सव्वावरेण आजीविदिदतेणं चरासीइ जाइ कुलकोडी जाणीपमुहम्र यसहस्सा भवतीति समक्खाया' मा सूत्र द्वारा सभावामां मावी छे. અહીંયાં અજીવ દષ્ટાંતથી અર્થાત સમસ્ત લેકસ્થિત જીની અપેક્ષાથી ચોર્યાશીલાખ જાતિકુલ કોટિ કહેલ છે તે આ પ્રમાણે છે. ત્રસજીવ બત્રીસ લાખ થાય છે. જેમકે બે લાખ બે ઈદ્રિયવાળા, બે લાખ ત્રણ ઈ દિયવાળા બે લાખ ચાર ઈદ્રિયવાળા, ચાર લાખ તિર્યક, પચેદ્રિય ચાર લાખ નારકી, ચાર લાખ દેવ અને ચૌદ લાખ મનુષ્યની જાતિ આ રીતે બત્રીસ લાખ ત્રસ જીવે છે. તેમજ સ્થાવર જી પણ બાવન લાખ થાય છે. જેમકે સાત લાખ પૃથ્વીકાય ૭.
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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