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________________ जीवामिगमस्से इति प्रश्नः, उत्तरयति-'जहेव भुपपरिसप्पाणं तहेव' यथैव भुजपरिसणां लेश्यादिकं कथितं तथैव- तेनैव रूपेण उर परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणामपि ज्ञातव्यम् । तथाहि-त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अण्डजाः, पोतना, समूर्छिमाश्च । शेषद्वाराण्यपि भुजपरिसर्परदेव व्याख्ये यानि । ___यत्र विशेष स्तमाह-'गदर' इत्यादि, 'गवरं ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुचकोडी' नवरं-विशेषस्त्वयम्-उर-परिसपणां स्थितिघन्येनान्तर्मुहूत्तम् उत्कर्षण पूर्वकोटिममाणा भवतीति । 'उहिता जार पंचमि पुढवि गच्छति' उस परिसर्पजीवा उ परिसभ्य उदृत्य पश्चनीं धूममभापृथिवी गच्छन्ति, इति । 'दसजाइकुळकोडी' उर:-परिसपानीवानां दशजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतउरःपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनिक जीवों का योनि संग्रह कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जहेष भुयपरिसप्पा णं तहेव' हे गौतम जैसा योनि संग्रह भुजपरिक्षों का कहा गया है वैसा ही वह यहां पर भी है अर्थात् यहां वहां की तरह योनि संग्रह तीन प्रकार का कहा गया है और वह अंडज, पोतज और संमूच्छिम रूप है। शेष लय द्वार भी भुजपरिसों के जैसे कहना चाहिये जिन बोरों में भिन्नता है उन द्वारों को बाहते हैं-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं ठिई जहन्नेणं अंतोनुहुतं उझोसेणं पुचकोडी' यहां उरःपरिसॉं' की स्थिति जघन्य ले एक अन्नर्मुहर्त की और उत्कृष्ट से पूर्व कोटि प्रमाण है 'उध्वहिता जाय पंचमि पुढधि गच्छंति' से मरकर के पांचवी नरक पृथिवी लक जाते हैं - दलजानी लक्षोडी' इनकी कुल कोटियाँ दिय तिरिक्खाणियाणं भसे ! पुच्छा' है मगवन् । ७२.परिसय २५सयर પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવને નિસંગ્રહ કેટલા પ્રકાર છે? આ પ્રશ્નના उत्तम असुश्री छ 'जहेव भुयपरिसप्पाणं तहेव' गौतम ! सुपरिसना નિસંગ્રહ જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે તે અહિંયાં પણ સમજ અર્થાત્ ત્યાંની માફક અહિંયા પેનિસંગ્રહ અંડજ, પિતજ, અને સંમૂચ્છિમ એ રીતે ત્રણ પ્રકારને કહેલ છે. તથા બાકીના સઘળા દ્વારે પણ ભુજ પરિ सानी भर सभल सेवा. २ द्वारामा हा मावे छ, ते द्वारा 'नवरं' याहि सूत्रा द्वारा ४ छे 'नवरं ठिई जहण्णेण अतो मुहुत्तं उक्कोसेणं पुबकोडी' मडिया 8२:५रिसानी स्थिति धन्यथा से मतभुनानी भने यी पूर्व पाटि प्रभानी है. 'उध्वट्टित्ता जाव पचमि पुढवि गच्छति' से भरीने पायभी न२४ पृथ्वी सुधीनय छे. 'दस जाती कुलकाडी.' तमानी
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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