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________________ %D जीवामिगमध्ये सहस्राणि विक्षरंति 'अंतो अंतो हूहूयमाणाई' अन्तरन्तहहूयमानानि अतिशयेन जाज्वल्यमाननि 'चिट्ठखि' तिष्ठति 'ताई पालइ' तानि-उपर्युक्तविशेषणविशिष्टस्थानानि पश्येत् स नारकः, 'ताई पासित्ता ताई ओगाइ' तानि स्थानानि दृष्ट्वा तानि स्थानानि अवगाहते 'ताई ओगादित्ता' तानि स्थानानि अवगाह्य 'से णं तत्य उण्हपि पविणेज्जा' स खलु नारक स्तन स्थानेषु उष्णमपि नरकोष्ण वेदना जेनित बहिःशरीरस्य परिखापमपि प्रविनयेत्-विनाशयेदिति। 'तण्हंपि पविणेज्मा तृष्णामपि प्रविनयेत् 'खुहपि पविणेज्जा' क्षुधामपि प्रविनयेत् 'जरंपि पविणेना' अपरं शरीरान्तः परितापयपि प्रविनयेतू 'दापि पविणेज्जा' दाइमपि भीतर ले लिमाल रहे हैं 'अंतोअंतो हूहू आमाणाई' भीतर ही भीतर मानों ये हू हू शब्द करते हुए जल रहे हैं-'ताई पास ऐसे विकट गर्मी की दाह रूप दला को उत्पन्न करने वाले इन स्थानों को यदि उष्ण वेदना वाले लाको क्ष नारकी देख लेता है और 'पासिता देखकर वह 'ताई मोगाइ' उनले ले शिली एक स्थान में प्रवेश कर जाता है 'ताई ओगाहिला' वहां प्रवेश करके ले गं तस्य उपहषि परिणेजा यह नारकी वहां पर भी अपनी एक अन्य्द उच्छा वेदना को दूर कर सकता है अर्थात् इन स्थानों में भी उसे उE वेदना के आगे शीत का ही अनुभव होता है नरक जन्या उष्ण बेदना सा पाव शरीर में परिताप नहीं होता है. यह बल लण्हं व पक्षिणेजा हवा-धाला को भी नष्ट कर देता है, 'मुह पक्षिणेज्जा' अपनी क्षुधा को भी शान्त कर लेता है. 'जरंपि पविणेज्जा अपडे शरीर के तीतर रहे हुए परिताप रूप धर को भी ५२ ४६11 २काय, 'भंतो अंतों हूयमाणाई' ४२२. म १२ नये ताडू शहे। ४२ता ३२ता मणी २४ा डाय 'ताई पासई' अवा विट અગ્નિના દાહ રૂપ વેદનાને ઉત્પન્ન કરવાવાળા આ રથાનેને જે ઉણુ વેદના वापस लौना ना२ये न से सने पालिता' लेधन ते 'ताई' ओगाई' तमाथी १४ मे स्थानमा प्रवेश लय छे. 'ताई ओगाहित्ता' त्या प्रवेश ४श से णं तत्थ उह पि पविणेजा' ते नाही त्या ५ पोतानी न२४०४न्य ઉણ વેદનાને દૂર કરી શકે છે. અર્થાત આ સ્થાનમાં પણ તેને તે ઉષ્ણુ વેદનાની આગળ શીત વેદનાને જ અનુભવ થાય છે. નરક જન્ય ઉવેદનાને परिता५ मा शरीरमा थने नथी. ते त्या तहपि पविणेज्जा' तरसने ५९ न११ ४१ छ. 'खुहं पि पक्षिणेज्जा' पातानी भूमने ५Y शांत ४री छ, 'जरंपि पविणेज्जा' पोताना शरीरनी ४२ २७ता परिता५ ३५ १२ने पर
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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