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________________ जीवामिगमसूत्रे ૩૦૨ वृत्तस्कन्धः तथा—'चम्मेदृगदुहणमुट्ठिय समाइयणिचियगगते' चर्मेटक दुघणमौष्टिक समाहतनिचितगात्र गात्रः, तत्र चर्मेष्टकम् - इष्टकाखण्डादि पूर्णचर्म कुतुपः दुघण: - मुद्गरः, गोष्टिकं =मुष्टपरिमितं चर्मरज्जुपोतं पापा गोल्कादि, तैः चर्मेष्ट कघणौष्टिकैः समाहतानि सम्यगाहतानि व्यायामसमये ताडितानि अतएव निचितानि निविडानि दृढाणि गत्राणि - अङ्गानि यत्र तादृशं गात्रं शरीरं यस्य स स चर्मेष्टकरण मौष्टिकसमादवनिचितमात्रगात्रः । तथा - 'उरस्सवळसमण्णागए' औरसवलसमन्दागतः - उरसि भवमौरसम् आन्तरं यदूवलं- सामर्थ्यातिशय:, तेन समन्वागतः - समनुप्राप्त इति आन्तर सामर्थ्ययुक्त इत्यर्थः । 'छेप' छेको द्वासप्तति कलासु पण्डितः 'दक्खे' दक्षः - कार्याणामविलम्बितकारी । 'डे' प्रष्टः- वाग्मी हितमितभाषीत्यर्थः । 'कुसले' कुशलः - सम्यक् क्रियापरिज्ञानवान् । 'णिउणे' निपुणः - चतुरः । 'मेधावी' येधावी - परस्पराव्याहत पूर्वापरानुसन्धान दक्षः, अतएव 'निउणसिप्पोवगए' निपुणशिल्योपगतः निपुणं यथा भवति एवं शिल्पं क्रियासु कौशलमुपगतः प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः । एतादृशविशिष्टः यदि 'म्मेग दुरणमुहिय समारयणिचियगत्त गत्ते 'जिसका शरीर चमडे की बर्त के प्रहारों से मुहरों के प्रहारों से एवं मुष्टि के प्रहारों से खूब परिपुष्ट हो गया हो ऐसे पहलवान मनुष्य की तरह जिसका शरीर पुष्ट हों 'उरस्सपलसमण्णागए' जो आन्तरिक उत्पाद और वय से युक्त हो 'छेए' ७२ कलाओं में निपुण हों, ' दक्खे' कार्यों का अविलम्पकारी हो 'पडे' पृष्ठ - वाग्मी - हितमित भाषी हो 'कुसले ' कर्त्तव्य कार्यों का जिसे समीचीन रूप से ज्ञान हो 'णिउणे' निपुण हो 'मेहावी' परस्पर में अव्याहत ऐसे पूर्वापर के अनुसन्धान करने में दक्ष हो 'णिउणसिप्पोचगए' अच्छी तरह से जिसे हर एक क्रियाओं में -- पूर्ण रूप से कुशलता प्राप्त हो चुकी हो - ऐसा वह लुहार का दारक णिचियगत्तगत्त' नेतुं शरीर ચામડીના ચામુકના પ્રહારથી, મુદ્રાના પ્રહારાથી અને મુષ્ટિકાઓના પ્રહારથી ખૂમજ પરિપુષ્ટ થયેલ હોય એવા पहेलवान मनुष्यनी नेम नेनुं शरीर पुष्ट होय, 'उरस्सवलसमण्ण, गए' २ આન્તરિક ઉત્સાહ અને વીર્ય થી યુકત હાય, છે' ખેતેર છર કળાઓમાં નિપુણુ हाय ‘दक्खे' 'अर्थ' '१२वामां दक्ष थतुर होय, 'पट्टे' वारंभी हित भने मित भाषी होय, 'कुमले' व्यय ने सारीरीते ज्ञान होय, 'जिंउणे' निपु होय, 'मेहावी' परस्परंभां संभाष सेवा पूर्वोपरनुं अनुसंधान ४२वाभां दक्ष होय, 'णि सिंप्पोवगए' ने हरे प्रभां पद्याथी दुशणता प्राप्त ' एवं मह अयपिंड' से४- धान यूडी होय, मेवा से सारने पुत्र
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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