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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.२.१६ किं द्रव्यमया नरका इति निरूपणम् २०९ भवति । 'एतदाशयेनैवाह - 'सासवाणं ते नरगा दव्वट्टयाए' शाश्त्रता नित्याः खल ते रत्नप्रभानरका द्रव्यार्धतथा प्रतिनियत तथाविध संस्थानादिरूपतया । किन्तु 'वण्णपज्जवेर्हि' वर्णत्रययैः कालनीललोहितपीतशुक्लपर्यायैरित्यर्थः तथा-'गंधपज्जवेहिं' गन्धपर्यायैः सुरभि दुरभि गन्धपर्यायैरित्यर्थः 'रसपज्जवेहिं' रसपर्यायै तिक्तकटुकषायाम्लमधुरययैरित्यर्थः, तथा फालपज्जवेर्हि' कर्कश मृदुकगुरुकबंधुकशीतोष्ण स्निग्धरूक्षस्पर्शपर्यायैः पुनरेते नरकाः 'अमासया' अशाश्वताः बाहिरी अनेक पुल यहां पहुंच जाते है । क्योंकि जीव और पुद्गल ये दो ही गति क्रिया और स्थिनि क्रियाशील है । परन्तु - 'साखयाणं ते परगा दबाए' वे नरक क्रव्यार्थ दृष्टि से शाक्त है- क्योंकि उनके संस्थान आदि कोई परिवर्तन नहीं होता है । वह तो उनका प्रतिनियत ही बना रहता है 'दण्णवज्जवेहि गंग पज्जवेहिं राजवेहि फासपज्जवेदिलालां' क्रार्य दृष्टि से ये शाश्वत है ऐसा यह कथन एकान्तरूप से नहीं है किसी अपेक्षा ये अशाश्वत भी हैं - यही बात इस सूत्र द्वारा स्पष्ट की गई है। कृष्ण, नील, लोहित पीत और शुक्ल इन रूप पर्यायों से बग्ध पर्शयों से रक्ष पर्यायों से और स्पर्श पर्यायों से वे अशाश्वत भी हैं। कृष्ण शुक्ल आदि रस की पर्याये हैं सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध ये गन्ध की ये है तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर ये रस की पर्यायें हैं और फर्कश, मृदुक, गुरुक, लघुक शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष ये स्पर्श की पर्याये है। અનેક પુદ્ગલ ત્યાં પહોંચી જાય છે. કેમકે જીવ અને પુગલ આ એ જ द्रव्यं गति दिया उसने स्थिति हियाशील छे. परंतु 'सासयाणं ते परगा दव्व याए' ते नरावासे । द्रव्यार्थ दृष्टिथी शाश्वत छे. भट्ठे तेखाना संस्थान વિગેરેમાં કઇ પણ પરિવર્તન થતું નથી. તે તે તેની પ્રત્યે નિયતજ અન્યા २हे छे. 'वण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया' દ્રષ્યા દૃષ્ટિથી તે શાશ્વત પણ છે. એ પ્રમાણેનું આ કથન એકાન્તરીતે નથી. કઈ અપેક્ષાથી એ અશાશ્વત પણ છે, એજ વાત આ સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આાવી છે. કૃષ્ણ, નીલ, લેાહિત લાલ પીત-પીળા અને શુકલ કહેતાં શ્વેત સફેદ આ વર્ણ રૂપી પાંચેાથી આ બધા અશાશ્વત પણ છે, કૃષ્ણ, શુકલ, વિગેરે રસના પર્યાય છે. સુરભિગંધ અને દુરભિગધ આ गौंधना पर्याये। छे, तीच्या, उडवा, उषाय-तुरा, अभ्-जाटा भने भधुर ४ तां भीठा या रसना पर्याय। छे. तथा श, भृटु, गु३, सधु, शीत, उष्णु स्निग्ध અને રૂક્ષ આ સ્પ`ના પાંચા છે. जो० २७
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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