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________________ जीवामिगमसूत्रे १८२ 'अधस्तनाद् घनाः सहस्रमुपरि संकोचतः सहस्रं तु । मध्ये सहस्र शुपिराः त्रीणि सहस्राणि उच्छिाः । इतिच्छाया' सम्पति-नरकावासानामायामविष्कम्भ प्रतिपादनार्थमाह-मीसे णं मंते । इत्रादि, 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए' एतस्यां खलु मदन्त ! रत्न. प्रभायां पृथिव्याम् ‘णरगा' नरकाः 'केवइयं आयामविखंभेणं' कियत्का आयाम विष्कम्भेण किं प्रमाणा आयामविष्कम्भेण, आयामश्च विष्कम्भश्चेति समाहार स्तेन 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ता' कियत्काः परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता:-करिता नरका इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पनचा' द्विविधा:-द्विमकारका नरकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'संखेज्ज विस्थडाय' संख्येय विस्तराश्च संख्येयः-संख्येययोजनप्रमाणो विस्तारो येषां 'हेटाघणा सहस्सं उपि संकोचतो सहस्सं तु। मज्झे सहस्सं सुसिरा तिन्नि सहस्सुसिया नरया ॥१॥ इस गाथा का अर्थ स्पष्ट है। अथ सूत्रकार नरकाबासों का आयाम और विष्कम्भप्रतिपादन करते है इस में गौतमने प्रभुश्री से पूछा है-'इमीसे गं भंते । रयणप्पभाए पुढ बीए' हे भइन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'नरगा' नरक हैं वे 'केवइयं आयाम विक्खंभेणं' कितनी लम्बाई घाले एवं चौडाई वाले कहे गये हैं और 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ता' कितना इनका परिक्षेप-घेरा कहा गया हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! दुविधा पन्नसा' हे गौतम! प्रथम पृथिवी में दो प्रकार के नरक कहे गये हेढा घणासहस्सं उपि संकोचतो सहस्संतु । सझे सहस्स सुसिरा तिन्नि सहस्सुसिया नरया ॥१॥ આગાથાને અર્થ સ્પષ્ટ જ છે – હવે સૂત્રકાર નકાવાસોના આયામ અને વિધ્વંભનું પ્રતિપાદન કરે છે मामा गौतम स्वामी से प्रभु २ मे पूछे छ है-'इमीसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुढबीए' 3 भगवन् मा २नमा पृथ्वीमा २ 'नरगा' ते न२। छे. a 'केवइयं आयामविक्खंभेणं' सीमा व अन ती पडेगा ani डस छ ? मन 'केवइयं परिक्खेवेण पण्णत्ता' भन तेन परिक्ष५ घरा। दो छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४४ छ है-'गोयमा! दुविहा पण्णत्ता 3 गीतम! पडेसी पृथ्वी से प्रारना न२४ ४७स छ. 'तं जहा' मा प्रमाणे
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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