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________________ जीवामिगमत्रे १६२ प्रश्नानुसारेण प्रष्टव्यम् प्रश्नः कर्त्तव्यः, 'वागरेण्यंपि तदेव' व्याकर्त्तव्यं तथैव उत्तरमपि तथैव दातव्यम् यथा - अधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टसहखोत्तरशतसहस्त्रयोजनवाहल्यतः उपर्यधोभागात् प्रत्येकं सार्द्धद्विपञ्चाशत् सहस्रयोजनानि क्वामध्ये त्रिसदस्रयोजनममिते शुपिरभागे 'काल महाकालरौख महारौरवा' प्रतिष्ठानाभिधाः पश्च महानरकावासाः सन्ति इत्येवं रूपेण उत्तरं दातव्यम् तदालापका वेत्थम् 'सक्करपभाए णं भंवे ! पुढचीए बत्तीसुत्तरजोयणसय सहस्सबाहल्काप उवरि केवइयं ओमाहित्ता हा केवइयं वज्जेत्ता छझे चैव केवइए केवइया निरया बहुत बडे अतएव 'महानिरया' महानरक कहे गये हैं ? एवं पुच्छि यच्च इस प्रकार प्रश्न करलेना चाहिये । तथा-" वागरेयव्वंपि तदेव" इसका उत्तर सी यहाँ जितने प्रमाण के मध्यभाग में जितने नरकावास है अर्थात् अधः सफमी पृथिवी के एक लाख आठ हजार योजन के वाल्य में से साढे वाचन हजार उपर के भाग को और इतने ही नीचे के भाग को छोडकर बीच के तीन हजार योजन के पोलाण में पांच महानरकावाल है काल १ महाकाल २ रौरव ३ महारौरव और बीच में पांचवां अप्रतिष्ठान नरक ५ हैं इस प्रकार से कह देना चाहिये आलापक इस प्रकार हैं- 'सक्करप्पभाषणं भंते पुढवीए यत्तीसुत्तर जोयण सपसहरुसबाहल्लाए' हे भदन्त ! एक लाख बत्तीस हजार पोजन की मोटी शर्कराप्रभा नाम की द्वितीय पृथिवी के 'उवरि केवइयं -} ' एवं ' पुच्छियव्व" मा रीते प्रश्न पूछी सेवेो लेो. तथा 'वागरेय पि સંદેવ' તેના ઉત્તર પણ અહિંયાં જેટલા પ્રમાણવાળા મધ્યભાગમાં જેટલા મરકાવાસ છે, અર્થાત્ અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના એક લાખ આઠ હજાર ચેાજનના માહલ્યમાંથી સાડા બાવન હેજાર ઉપરના ભાગને અને એટલાજ નીચેના ભાગને કાઢીને વચલા ત્રણ હજાર ચેાજનના પેાલાજીમાં પાંચ મહાનરકાવાસે છે. તે या अभाये है. मल १, भहाण २, रोख उ, भडाशैरव ४, अने वयभी પાંચમું ઋપ્રતિષ્ઠાન ૫ નામનું નરક છે. આ પ્રમાણે કહેવું જોઈએ. તેના भासाया था प्रभाये हे 'सक्करप्पभाए णं पुढत्रीए बत्तीसुधरणोयण स्वयंमहस्सा हल्लाए' से भगवन् शे साथ अत्रीस उन्तर योजननी विशाजता वाणी शशप्रभा नामनी मील पृथ्वीनी 'उचरिं केवइयं ओगांहित्ता हेट्ठा केवइय बजेता मज्झे केवइए केवइया णिरयावास सय सदस्सा पण्णत्ता' (५२ भने नीथेनो 3
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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