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________________ १६० जीवामिगमत्र पत्रस्येव स्पर्णी येषां ते कर्कशप, एक 'दुरहियासा' दुरध्यासाः दुःखेन अध्यास्यन्ते-सह्यन्ते इति दुरध्यासाः, 'अमुभा' अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा-गन्धरसस्पर्शशब्दै रशुभाः-अतीदासातरूपा, 'णरएम वेयणा' नरकेपु वेदना इति । एवं एएणं अभिलावेणं उवजुंजिण भाणियन्नं णाणपएयाणुसारेणं' एवमेतेनामिलापेन-आलापकप्रकारेण उपयुज्य-सम्पविविच्य भणितव्यम्-वक्तव्यम् स्थानपदानुसारेण प्रज्ञापनाया द्वितीय स्थानपदे (पृ-२४३ -२५३) यथा कथितं ददनुसारेणैव 'जत्थ जं वाहल्लं' यत्र यस्यां पृथिव्यां यत् यावस्कं बाहल्यम् 'जत्थ जत्तिया वा' यत्र यस्यां यावन्ति वा 'नरयावाससयपत्र की तरह अतिः माह होना है त एव वे नरकाचा 'दरहियासा' घडे दुःख के साथ २. लहन घि.थे-भोगे जाते हैं। ये 'असुभा' देखने में अशुभ होते हैं। तथा इन नरकों में जो गन्ध होता है वह, जो रस होता है वह, और जो स्पर्श होता हे वह सब अशुभ ही होता है शुभ नहीं होता है यहां जो जीवों को वेदना होती है वह भी अत्यन्त असात रूप ही होती है, 'एवं एएणं अभिलावेणं उपखंजिऊण भाणियव्वं ठाणप्प याणुमारेणं' इसी प्रकार से और भी बाक्षी समस्त पृथियों में अच्छी तरह से विवेचन करके कथन करलेना चाहिये जैसा कि इस सम्बन्ध में कथन प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में किया गया है 'जत्थ जे पाहल्लं' इस तरह प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद के अनुसार जहां जिस पृथिवी में जो जसी बाहल्य-मोटाई-कहा गया है और 'जस्थ जन्तिया वानरयावास फासा' महिना ४४ २५श गसिपत्रनी तसवारनी घार २१॥ ५i314 ઝાડની જેમ અત્યંત દુઃસહ અર્થાત્ અસહય હોય છે. અને તેથી જ તે न२४पासे 'दुरहियांसा' मत्यत हुप पू सहन ४२य छ अर्थात् मथी सोगवी शय तवा हाय छे. ते न२४पासे 'भसुभा' वाम अशुल डाय छे તથા આ નરકમાં જે ગંધ હોય છે, તે અશુંભ જ હોય છે. અને જે રસ હોય છે તે તથા જે સ્પર્શ હોય છે તે બધાજ અશુભ હોય છે શુભ હેતા નથી. અહિંયા જી ને જે વેદના થાય છે તે પણ અત્યંત અશાતા રૂપ જ राय छ 'रएण अभिलावेणं उवजु जिउण भाणियच ठाणप्पयाणुसारेणं' मा પ્રમાણે બીજી બાકીની સઘળી પૃથ્વીના સંબંધમાં સારી રીતે વિવેચન કથન કહેવું જોઈએ. જેમકે આ સંબંધમાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પદમાં ४थन ४२वामां मावस छे. 'जत्थ जे बाहल्ल' मा प्रभ प्रज्ञापन सूत्रना બીજા સ્થાન પદમાં કહ્યા પ્રમાણે જ્યાં જે પ્રવીમાં જેનું જે પ્રમાણેનું બાહથ पणा वामां आवेस छ, भने 'जत्थ जचिया वा नरयावासयसहस्सा'
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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