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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ स्. ११ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४५ पृथिव्यपेक्षयेत्यर्थः ' बाहल्ले णं' बाहल्येन बहलताया भावो बाहल्यं पिण्डभाव स्तेन पिण्डभावात्मकबाहल्येन 'किं तुल्ला बिसेसाहिया संखेज्जगुणा' कि तुल्या - सहशी विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा भवतीति वाल्य मधिकृत्य प्रश्न त्रयम् । ननु रत्नप्रभा पृथिवी अशीति सहस्रोत्तरैक शतसहस्त्र योजन बाहल्या, शर्करापृथिवी च द्वात्रिंशत्सहस्रो तरेक रात सहस्त्रयोजनबाहल्येति सर्वपृथिवीनां बाहल्य पूर्वसूत्रेऽनुपदमेव भगवता प्रदर्शितमिति सत्यपि अर्थावगमेऽस्य वाल्यविषयक प्रश्नत्रयस्य नैरर्थक्यमेन भवतीति सत्यम् प्रश्नो द्विविधो भवति - ज्ञ प्रश्नः अज्ञप्रश्नश्व, ज्ञपश्नः स घोच्यते, यः स्वस्यार्थावगमे सम्यपि मन्दबुद्धि विनेयजनव्या. मोहापनोदाय क्रियते, अज्ञ प्रश्नय सः, या स्वस्यानर्थावगये सति वज्जिज्ञासाथै पणिहाय' द्वितीय शर्करा प्रभा पृथिवी को आश्रित करके 'वाल्लेणं किं तुल्ला विसेलाहिण, संखेज गुणा " घोटाई में क्या परावर है ? था विशेषाधिक है ? या संख्यात गुणी अधिक है ? यहाँ कोई शंका करता है कि रत्नप्रभा पृथियी एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्य वाली है और शर्करामा पृथिवी एक लाख बत्तीस हजार योजन की है, इस प्रकार सब पृथिवियों का बाहल्य इसी सूत्र के पूर्व सूत्र में भगवान ने बतला दिया है तो इस विषय का अर्थबोध होने पर भी ये बाहल्य विषय के तीन प्रश्न यहां निरर्थक होते हैं। हां तुम्हारा यह कथन ठीक हैं परन्तु प्रश्न दो प्रकार का होता है- एक प्रश्न और दूसरा अज्ञ प्रश्न, ज्ञप्रश्न वह कहलाता है जो अपने जानते हुए भी समीपस्थ मन्द बुद्धि श्रील शर्करायला पृथ्वीनो आश्रय उरीने 'बाहल्लेणं संखेन्जगुणा' होणाभां शु मणिर छे ? अथवा સંખ્યાતગણી વધારે છે ? આ સ'બંધમાં કાઈ શંકા એક લાખ એસી હાર ચૈાજન ખાલ્યવાળી છે, અને શર્કરાપ્રભા પૃથ્વી એક લાખ મત્રીસ હજાર ચૈાજન માહુલ્યની છે. આ રીતે બધી પૃથ્વીચેનુ ખાહુલ્ય આ સૂત્રની પહેલા સૂત્રમાં ભગવાને બતાવેલ છે. તે આ વિષયને અ મેધ થવા છતા પણુ જે ખાહુલ્યના સમ ́ધમાં ત્રણ પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યા છે તે અહિયાં નિરથ ક જણાય છે. ઉત્તર-હા તમારૂં' આ કથન મરીजर छे. परंतु प्रश्नो मे अारना हाथ है. ये 'ज्ञ प्रश्न भने जीले 'ज्ञ' પ્રશ્ન' ના પ્રશ્ન એ કહેવાય છે કે જે પાતે જાણવા છતાં પણ બધા સમીપમાં રહેવાવાળા મંદ બુદ્ધિવાળા વિનયશીલ શિષ્યની શંકાના નિવારણ માટે પૂછવામા जी० १९ किं तुल्ला विसे साहिया विशेषाधि हो ? अथवा કરેકે રત્નપ્રભા પૃથ્વી
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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