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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १२९ 'अबाहाय' अबाधया अन्तर प्रज्ञप्तम् घनोदधेशितिसहस योजनप्रमाणत्वात् । 'घणवायरस असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई पन्नत्ते' शर्करामभोपरितनात् घरमान्तात् घनवातस्याधस्तन श्चमान्तः असंख्येययोजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम् । 'एवं जाव उवासंतरस्स वि' एवं यथा-धनवातस्यासंख्येययोजनशतसहस्रपन्तर तथैव शर्क राममाया उपरितनाश्चरमान्तात् तनुवावस्थावकाशान्तरस्य चाधस्तन परमान्तोऽसंख्येययोजनशनसहस्त्रमन्तर भवतीति ज्ञातव्यम् । कियत्पृथिधी पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि । 'जाव अहे सत्तमाए' यावदधः सप्तम्यां अधः सप्तमी पृथिव्याः अन्तरयकरणपर्यन्तमित्यर्थः । ननु एतत्सर्व शर्कराममा घणोदहिस्स हेडिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोषणसयसहस्सं' हे गौतम ! शर्कराप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का जो अपस्तन घरमान्त है वह एक लाख पावन हजार योजन के अन्तर से है-अर्थात् वहां से यहां तक एक लाख पावन हजार योजन का अन्तर है क्योंकि घनोदधि का प्रमाण बीस हजार योजन का होता है 'घणवायस्स असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई तथा-रत्नप्रभा के उपरितन घरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है 'एवं जाव उवा. संतरस्स वि' इसी तरह से शर्कराप्रभा पृथिवी के उपरितन परमान्त से लेकर तनुवात बलय के अधस्तन चरमान्त तक और अव. काशान्तर के अधस्तन चरमान्न तक असंख्यात लाख योजन का अन्त. राल कहना चाहिये कितनी पृथिवी तक कहना चाहिये ? इस पर कहते है-'जाव अहे सत्तमाए' जिस प्रकार शर्करप्रभा के विषय में अन्तर घणोदहिस्स हेदिल्ले चरिम ते बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्स” ले गौतम ! શર્કરપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી ઘોદવિ પૃથ્વીને જે નીચેને ચરમાંત છે, તે એક લાખ બાવન હજાર જનની અંતરે છે અર્થાત્ ત્યાંથી અહિયા સુધીમાં એક લાખ બાવન હજાર એજનનું અંતર છે. કેમકે ઘનેદવિનું प्रभा वास २० M२ ननु छे. 'घणवायत्स असं खेज्जाइं जोयणसयसहस्साई' तथा २नमाना ५२॥ २२मान्त सुधीमा सभ्यात are याननु मत२ छे. 'एव जाव उवासंतरस्म वि' ०४ प्रमाणे शराला પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી લઈને તનુવાતવલયના નીચેના ચરમાત સુધી અને અવકાશાન્તરની નીચેના ચરમાંત સુધી અસંખ્યાત લાખ જનનું અંતરાલ કહેવું જોઈએ કેટલી પૃથ્વી સુધી તે કહેવું જોઈએ તે બાબતમાં કહે છે કે 'जाव अहे सत्तमाए' २ प्रभारी राई २१ पृथ्वीना समयमा मतनु. ५४२६५ जी. १७
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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