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________________ e प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. धनोध्याीनां तियंग्वाहल्यम् ८७ पृथिव्याः 'घणोदहिवलए कि संठिए पन्नत्त' घनोदधिवलयः किं संस्थिता कीदृश संस्थानदान प्रज्ञप्तु:-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'वहे' वृत्तः 'दलयामारसंठाणसंठिए पचते' वलयाकारसंस्थानसंस्थितः यज्ञप्तः, वृत्तः-चक्राकारचतुलो यस्य-मध्यभुपिरस्य वृत्तविशेषस्याकार आकृति वलयाकारः स इस संस्थानमिति वलयाकारसंस्थानं तेन संस्थानेन संस्थितः, इति इलयाकारसंस्थान संस्थित इति । कथं पुनरिदं ज्ञायते यदयं घनोदधि वलयो बलयाकारसंस्थानसंस्थित इति तत्राह-'जेणं' इत्यादि, 'जे ण इमं रयणप्पमं पुढब' येन खल्ल कारणेन इमा रत्नममा पृथिवीम् 'सचओ समंता' सर्वतः समन्तात् सर्वासु विक्षु विदिक्षु च 'संपरिविवत्तान' संपरिक्षिप्य अव सूत्रमार घनोदधि आदिकों के संस्थान को दतिपादन करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इनीले णं भंते ! रमणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवलए कि संठिए एनत्ते' हे सदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि बलय है उसका संस्थान कैसा कहा गया है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयला! बट्टे वलयागार संठाणसंठिए पन्नत्त' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के घलोदधि बलय का संस्थान वलय के आजार जैसा गोल मध्य भाग खाली ऐसा कहा गया है हे सदन्त ! यह कैले ज्ञात होता है कि धनोदधि यलय का आकार वलय जैसा गोल मध्य भाभा में खाली ऐला आकार जैसा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जे णं इम स्थणप्प पुढर्षि समभो समंता' हे गौतम्ब ! जिस कारण ले इल रत्नप्रभा पृथिवी को यह घनोदधि वलय चारों दिशाओं में एवं विदिशाओं में संपरिखित्ता' હવે સૂત્રકાર ઘને દધિ વિગેરેના સંસ્થાનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેમાં गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछ्यु छ , 'इमीले णं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहीवलए कि सठिए पन्नत्ते' हे भवन् ! मा २रनमा पृथ्वीना જે ઘોદધિવલય છે, તેનું સંસ્થાન કેવું કહ્યું છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतमस्वामीन छ है 'गोयमा ! बढे वलयागारसठिए पन्नत्ते' गौतम ! રત્ન પ્રભા પૃથ્વીના ઘને દધિવલયનું સંસ્થાન વલય મલયાના આકાર જે ગોળ પણ અધ્યભાગમાં ખાલી એ કહેલ છે. હે ભગવદ્ ઘને દધિને આકાર બેલેયા જે ગોળ અને મધ્ય ભાગમાં ખાલી એ છે, તે કેવી રીતે જાણી शय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन. ४३ छे , 'जे ण इम' यणप्पभ पुठवि सवओं समता' है गौतम ! २५॥ २९नप्रमा पृथ्वीन मा
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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