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________________ ५५० जीवाभिगमसूत्रे , उत्कर्षेण वनस्पतिकालः आवलिकाऽसस्येयभागगतसमयरात्रिप्रमाण सख्येय पुग परावर्त प्रमाणा. इति || ' एवं एगिंदियण पुंसगस्सणं' एवम् एवमेव सामान्यतिर्यग्योनिकनपुंसकवदेव तियग्योनिक मृतस्य सामान्यै केन्द्रियनपुसकस्यापि जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त्तमुत्कर्पतो वनस्पतिकाल प्रमितं कालमानं ज्ञातव्यम् । तत्र विशेष चिन्तायाम् ' वणसई काईग्रस्त वि एवमेव' वनस्पति कायिकस्यापि एवमेव सामान्यतिर्यग्योनिकनपुसक तुल्यमेव कार्यस्थितिमान विज्ञेयम् जधन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्पतो वनस्पति काल इति 'सेना' पाणामेकन्द्रियाणा पृथिवी कायिकाकायिकतेजस्स्कायिकवायुकायिकानां कायस्थिति 'जहन्नेणं अतो मुद्दत्त' जघन्येनान्तर्मुहूर्तम 'उक्कीसेणं असंखज्जं कालं' उत्कर्षेणासख्येय कालम् 'असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ कालभ' असख्याता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य, कालत, खेत्तभ असंखज्जा लोया' क्षेत्रतोऽसख्याता लोका. । wwwwwwww पर्यन्त होता रहता है यह वनस्पति काल आवलिका के असख्यातवें भाग में जितने समय की राशि होती है तत्प्रमाण होता है. इसमे असख्यात पुद्गल परावर्त हो जाते है । 'एवं एगिदिय पुंसगस्स णं" इसी प्रकार से तिर्यग्योनिक नपुसको में एकेन्द्रिय नपुसक जीव की भी कायस्थिति का कालमान कहा है - जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त का है और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल प्रमाण अर्थात अनंतकाल का है इसमें अनत उत्सर्पिणी अवसर्पिणीं काल समाप्त हो जाता है । 'वणसई कायस्स वि एवमेव" विशेष की अपेक्षा वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियनपुंसक की भी कायस्थिति का कालमान सामान्यत एकेन्द्रिय की कायस्थिति के कालमान जैसा ही है अर्थात् अनन्तकाल का है "सेसाणं" शेष - पृथिवी कायिक अपकायिक तेज कायिक और वायुकायिक इनकी कायस्थिति 'जहन्नेणं अंतो मुहुतं उक्कोसेणं 'असंखेज्जं कालं" जघन्य से एक अन्तर्मुहुर्त की है और उत्कृष्ट से असंख्यात काल की है. असंखेज्जाको उस्सप्पिणीओ सप्पिणीओ कालओ खेतओ असंखेज्जा लोगा" इसमें कालकी अपेक्षा असख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी समाप्त हो जाते है तथा क्षेत्र की अपेक्षा असख्यात लोक समाप्त हो વનસ્પતિકાળ આલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગમા જેટલા સમયેયની રાશિ હાય છે, એટલા प्रभाणुनी होय छे गाभा असभ्यात युहूगल परावर्त यह लय छे एवं पगिदिय णपुंसगस्स '' આજ પ્રાણે તિર્યંચૈાનિક નપુસકામાં એક ઇદ્રિયવાળા નપુસક જીવેાની કાર્યસ્થિતિ ના કાળમાન છે. એટલે કે જઘન્યથી અ તમુહૂતના અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિકાળ પ્રમાણુ અર્થાત્ रमन ंत अणनो छे. भाभा नत उत्सर्पि अवसर्पिण समाप्त था लय छे. "वणasara fa vaमेव" विशेषनी अपेक्षाथी वनस्पति अयि मे ४द्रियवाणा नपुंसौनी કાયસ્થિતિના કાળમાન પ્ર્ગુ સામાન્યતઃ એક ઇન્દ્રિયવાળાની કાયસ્થિતિના કાલમાન પ્રમાણે ● अर्थात मन ताणनों अणयान हे "सेसाणं" शेष पृथ्वी अमिया, ते अयि रमने वायुप्रयहोनी अय स्थिति "जहण्णेणंअंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं' धन्यथी मे तनी नेष्टी असण्यातअजनी है, "असंखेजाओ उस्ल प्पणी ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ, असंखेजा लोगा" आमा अजनी अपेसाथी असण्यात ઉત્સર્પિણી અને અપસી સમાપ્ત થઈ જાય છે. તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષા અસ ખ્યાતલાક
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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