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________________ जोषाभिगमने द. नाद प्रमाणकभवस्थितेरमभवादिति । अतः परं स्थावरत्रसजीक्योरेव कायस्थिति. फालमाह-यावरेण भंते इ यादि, 'थावरेणं भंते' स्थावरजीव खलु भदन्त | 'थावरत्ति कालो बन्चि होति' स्थावर इति-स्थावर इत्यनेन रूपेण स्थावरत्वेनेति भावः कालतः किरिना भवतीनि प्रश्न' भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमर' जयन्येनान्तर्मुहर्चमानं स्थावरत्वेन रूपेण स्थावरो भवतीति । 'उक्कोसेणं अगनं काल' करतोऽनन्त कालम् । अमुमनन्तं कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-'अणताओ उम्पप्पिगी श्रीमप्पिणीभी कालो' अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालत', 'खेत्तओ अणंता टोया' क्षेत्रनोऽन ना लोकाः, अयं भाव.-यथा कल्पनया अनन्त लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशामें एक बातमहन की और उस्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है। इतनी बड़ी स्थिति का देवभव और नारकभव की अपेक्षा से कथन किया गया है । मनुष्यभव और तिर्यच भवी रक्षा में नदी क्योंकि वहा इतनी बड़ी स्थिति उत्कृष्ट मनुष्यतिर्यञ्च की नहीं होती है. पहानी 322 से स्थिति केवल तोन ही पन्योपम की होती है। स्थावर एवं त्रस जीव की हासमिति स कथन करते हैं-"थावरे णं भंते ! यावरत्ति कालमो केवच्चिरं होई" मान' यह जद म्यावर है इस रूप से कितने काल तक रहता है ? "गोयमा ! जहन्नणं अंतो मुह उसकोसेणं अणंत कालं" गौतम ! जघन्य से तो यह जीव स्थावर सप अन्तर्गहन तक रहता है और उत्कृष्ट से अनन्त काल तक रहता है। यह वनस्पतिमाविको कायापनि का पेक्षा से कथन है. हम उत्कृष्ट कायस्थिति में 'अणंतायो उस्स पिणी नामपिणीओ" नन्न उसर्पिणी काल और अनन्त अवसर्पिणी काल व्यतीत हो जाते १ । "पेनी अणंता लोया" तथा क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक समाप्त हो जाते हैं । तात्पर्य पाने का रिक, चादर जोव स्थावर काय में इतने काल तक रह सकता है. क्षेत्र की अपेक्षा - - १ ધામા નાવા છે આટલી મોટી સ્થિતિનું કથન દેવભવ અને નારક ભવની અપેક્ષાથી કરેલ , અનાવી અને નિયંચ ભવની અપેક્ષાથી કરેલ નથી, કેમકે–ત્યાં એટલી મોટી * રિયતિ મનુષ્ય અને તિય ચની હોતી નથી. ત્યાં તે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ કેવળ ત્રણ ५ , "शारण भंते ! घावरत्ति कालयो केयच्चिरं होर" अागवन् २, ५.१२ है, न ! युधी २४ है ? "गोयमा ! जहणेणं अतोमुटु नान कार" २. गौतम ! पन्या तो मा ७५ या१२ पाथी मे४ 21 . ने यी अनत मुधी २४ . मा ४थन वनस्पति मितितायी मास्थितिमा “अर्णतायो उस्तपिणीमो. it' than नयनत सपनि पण वीतीय है. मनमोलोया" नी अायी गत सातय
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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