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________________ २८८ . जीवाभिगमन रक्रान्तिकजलचरजीवा. सर्वगतिभ्य आगत्य अत्रोत्पद्यन्ते तत्र यदि नरयिकेभ्य उपपातस्तदा रत्न प्रभात आरभ्य तमस्तमा पृथिवीपर्यन्तेभ्यः सप्तपृथिवीभ्योऽपि उपपातो भवतीति । 'तिरिक्खजोणिएहितो सव्वेहितो असंखेज्जवासाउयवज्जेहितो' तिर्यग्योनिकेभ्यः मर्वेभ्योऽसंख्येय. वर्षायुष्कवर्जेभ्यः, यदि तिर्यग्योनिकेभ्य उपपातो भवति तदा असंख्येयवर्षायुष्कवर्जेभ्यः सर्वेभ्य एव तिर्यग्योनिकेभ्य उपपातो भवतीति । 'मणुस्सेहितो अकम्मभूमग-अंतरदीवगभगखेज्जवासाउयवज्जेहितो' मनुष्येभ्यः अकर्मभूमिकान्तरद्वीपकासख्येयवर्षायुष्कवर्जेभ्यः, यदि जलचराणां मनुप्येभ्य उपपातो भवति तदा अकर्मभूमिकान्तरद्वीपकासंख्येयवर्षायुप्फवर्जितमनुष्येभ्य एवोपपातो भवतीति । 'देवेहितो जाव सहस्सारा' देवेभ्यो यावत् सहस्राराः, यावत् सहस्रारदेवलोकदेवा वर्तन्ते तावत्पर्यन्तदेवेभ्य इत्यर्थः, यदि देवेभ्य उपपातो भवति तदा सौधर्मादारभ्य से होता है। तात्पर्य इस कथन का ऐसा है-गर्भज जलनर जीव- सर्व गतियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं-यदि ये नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते है तो रत्नप्रभा से लेकर तमस्तमा जो सातवीं पृथिवी है, वहां के नैरयिकों में से इनका उत्पाद होता है । यदि तिर्यग् योनिक जीवों में से इनका उत्पाद होता है तो 'तिरिक्व जोणि एहितो सम्वेहितो असंखेज्जवासाउयवज्जेहितो' असंख्यात वर्षायुष्कतिर्यग्योनिकों को छोड़ कर वाकी के समस्त कर्मभूमिज तिर्यञ्चों में इनका उत्पाद होता है । यदि मनुष्यों में से इनका उत्पाद होता है तो "मणुस्से हितो अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेज्जवासाउयवज्जे हितो' अकर्मभूमि के एवं अन्तरद्वीपों के मनुष्यों में से इनका उत्पाद नहीं होता है क्योंकि ये सब असंख्यातवर्ष की आयुवाले होते हैं असंख्यातवर्ष की भायुवालों में से इनका उत्पाद होना निषिद्ध कहा गया है । अतः इनके सिवाय और सब मनुष्यों में से इनका उत्पाद होता है "देवेहितो जाव सहस्सारा' यदि देवों में से इनका उत्पाद होता है तो सौधर्म से लेकर सहस्रार तक - આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ગર્ભજ જલચર જીવ બધી જ ગતિમાંથી આવીને "ઉત્પન્ન થાય છે, રત્નપ્રભાં પૃથ્વીથી લઈને તમસ્તમાં કે જે સાતમી પૃથ્વી છે, ત્યાંના નરયિકમાંથી તેઓને ઉત્પાત-ઉત્પત્તિ થાય છે જે તિર્યાનિકેમાંથી તેઓને ઉત્પાદउत्पत्ति हाय तो "तिरिक्खजोणिपहिं तो, सम्वेहितो असंखेज्जवासाउयवज्जेहिंतो" અસંખ્યાત વર્ષાયુષ્ક તિયાને છોડીને બાકીના કર્મભૂમિના સઘળા નિચેમાં તેઓને Sund डाय छे. "मणुस्सेहितो अफम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेज्जवासाउयवज्जेहिंतो" અકર્મભૂમિના અને અંતરદ્વીપનાં મનુષ્યમાં તેમને ઉત્પાત–ઉત્પત્તિ થતું નથી. કેમકેઆ બધા અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા હોય છે, અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્કવાળા એમાંથી તેમને ઉત્પાત થવાને નિષેધ કરેલ છે. તેથી તેના સિવાયના બાકીના સઘળા भनुध्यामाथी तमन। पात-उत्पत्ति थाय छे. "देवेहिंतो जाव सहस्सारा" ने वाभांश
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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