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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्रति० १. स्थलचर परिसर्पसंमूच्छिम पं. ति जीवनिरूपणम् २७१ And नथ इहं, बाहिरएसु दीवसमुद्देसु भवंति से तं वितंतपक्खी' अथ के ते विततपक्षिणः, वितत पक्षिणः एकाकाराः - एक प्रकारा प्रज्ञप्ताः कथिता, ते खलु विततपक्षिणो न सन्ति इह - मनुष्यक्षेत्रे, किन्तु बाह्येषु - मनुष्यक्षेत्रातिरिक्तेषु द्वीपसमुद्रषु भवन्ति ते एते विततपक्षिणः । 'जे यावन्ने तहष्पगारा' ये चान्ये तथाप्रकारा स्तत्सदृशास्ते सर्वेऽपि खेचराश्चर्मपक्ष्यादि रूपतया प्रतिपत्तव्याः । ‘ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' ते पूर्वोक्ता इमे सर्वे पक्षिणः समासतः - संक्षेपेण द्विविधा. --- द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिता इति, 'तं जहा ' तद्यथा 'पज्जत्ता य अपज्जत्ता य' पर्याप्ताश्च अपर्याप्ताश्चेति । चर्मपक्षिलोमपक्षिस मुद्गपक्षि विततपक्षिणां शरीरादि ध्यवनान्तद्वाराणि जलचरवदेव ज्ञातव्यानि, केवलं शरीरावगाहना स्थिति जलचरापेक्षया विलक्षणे ज्ञातव्ये aaaपक्खी एगागारा पन्नत्ता - ते णं नत्थि इदं, बाहिरry दीवसमुद्देसु भवंति, सेतं विततपक्खी' इस का सारांश ऐसा है कि जब गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा कि - हे भदन्त । विततपक्षी कितने प्रकार के हैं - तब प्रभु ने उनसे ऐसा कहा कि हे गौतम ! विततपृथ्वी एक ही प्रकार के हैं और ये यहां मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते हैं किन्तु बाहर के द्वीप और समुद्रों में ही होते हैं । तथा-"जे यावन्ने तहप्पगारा" इन्हीं वे जैसे जो और भी पक्षी हो वे सब भी पक्षियों में ही परिगणित हो जाते हैं । 'ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' ये पूर्वोक्त समस्त पक्षी सक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं- 'तं जहा' जैसे - पज्जता य अपज्जत्ता य' पर्याप्त और अपर्याप्त ये चर्म पक्षी, लोम पक्षी समुद्गक पक्षी और विततपक्षी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं इनके शरीरद्वार से लेकर च्यवन द्वार तक का समस्त द्वारों का कथन जलचर जीवों के प्रकरण के जैसा ही है ऐसा जानना चाहिये । परन्तु जलचर् जीवों के प्रकरण की अपेक्षा -इनके प्रकरण कथन में जो भिन्नता है वह इनकी शरीरावगाहना में और स्थिति में है जो इस प्रकार से है - 'णाणत्तं - सरीरोगाहणा reat विततपक्खी पगागारा पण्णत्ता ते णं नत्थि इह, बाहिरपसु दीवसमुद्देसु भवति से तं विततपखी" मा पानी सारांश भी प्रभाषे हे न्यारे गौतमस्वामी प्रभुने वु પૂછ્યું કે હે ભગવન વતતપક્ષી કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? ત્યારે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુએ ગૌતમસ્વામીને કહ્યું કે-હે ગૌતમ! વિતતપક્ષી એકજ પ્રકારના કહેલ છે અને તે અહિયાં મનુષ્યક્ષેત્રમાં હાતા નથી પરંતુ બહારના દ્વીપ અને સમુદ્રીમાં જ હાય છે. તથા "जे यावन्ने तहçपगारा" आ विततपक्षीना देवा मील ने पक्षियों होय ते अघणा पक्षियो ની ગણિત્રીમા આવી જાય છે समासो दुविधा पुण्णत्ता" आ पडेला उडेल सर्वजा પક્ષિા સંક્ષેપથી એ જ अारना डेला छे "तं जहा" ते में अभी भाशे સમજવા "पज्जन्त्ता य अपज्जता य" पर्यास अने पर्यास. आयपक्षी, लाभपक्षी, समुङ्गणम्यक्षी, अनें वितर्तपक्षी, पयसि मने अययासना तेहथी में अंडीરના હોય છે. તેઓના શરીદ્વારથી લઇને ચ્યવનદ્વાર જલચરજીવાના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવુ, પર તું જલચરજીવા " 10527 10 સુધીના બધા જ દ્વારાનુ ચન 1 1
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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