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________________ जीवाभिगमसूत्रे वगाहनया भवन्ति, कुक्षिहिस्तप्रमाणा भवति । 'कुच्छिपुछत्तया वि' कुक्षिपृथक वका अपि केचन महोरगा भवन्तीति, "धणुहंपि' केचन महोग्गा धनुपि शरीरावगाहनया भवन्तीति, हस्तचतुष्टयप्रमाणं धनुर्भवतीति । 'धणुहपुहुनया वि' वनु पृथक् वका अपि केचन महोरगा । 'गारंवि' गव्यूतमपि फेचन महोरगाः शरीगवगाहनया भवन्ति, द्विधनुः सहमप्रगणं गन्यूतम् । 'गाउयपुहत्तया वि' गव्यूतपृथक्त्वका अपि केचन महोरगा भवन्तीति, 'जोयण पि' योजनपि योजनप्रमाणा अपि केचन महोरगा गरीगवगाहनया भवन्ति, चत्वारि गव्यूतानि योजनं भवति । जोयणपुहत्तया वि' योजनपृथक्त्वका अपि केचन महोग्गा भवन्तीति, 'जोयणमयंपि' योजनशतमपि केचन महोरगा शरीरावगाहनया भवन्ति । 'जोयणसयपुहत्तया वि' योजनशतपृथक्त्वका - ऐसे होते हैं जो कुक्षिपृथक्त्व तक की अवगाहना बाले होते हैं । "धणुइंपि" कितनेक महोरग ऐसे होते है जो एक धनुष चार हस्त-के होते है । चार हाथ का एक धनुप होता हैं । “घणुद्दपुत्तिया वि" कितनेक महोरग ऐसे होते हैं जो दो धनुप से लेकर नौ घनुप तक की अवगाहना वाले होते है । कितनेक महोरग ऐसे होते है जो 'गाटं वि' एक कोश की अवगाहना वाले होते है । दो हजार धनुप का एक कोश होता है कितनेक महोरग ऐसे होते है जो दो कोश की अवगाहना से लेकर नो कोश तक की अवगाहना वाले होते हैं । कितनेक महोरग ऐसे होते है जो एक योजन की अवगाहना वाले होते हैं । चार कोश का एक योजन होता है । कितनेक महोग्ग ऐसे भी होते हैं जो दो योजन की अवगाहना से लेकर नौ योजन तक की अवगाहना वाले होते हैं। कितने महोरग ऐसे भी होते है जो एकसो योजन की अवगाहनावाल होते है। एवं कितनेक महोरग ऐसे होते हैं जो दोसो योजनकी अवगाहना से लेकर नौ सो योजन હાથના હોય છે. કેટલાક મહોરો એવા હોય છે, કે જેઓ કુટિર પૃથર્વ સુધીની અવगहनावारी होय छे. "घणुहंपि" सेटमा भारी वा होय छे ४-माना शरीरनी અવગાહના એક ધનુષ અર્થાત ચાર હાથની હોય છે. ચાર હાથનું એક ધનુષ પ્રમાણકહેલ 9. "घणुहपुहतिया वि" मा महागो मेवा अाय छे ४-मा मे धनुपथी बन નવ ધનુષ સુધીની અવગાહનાવાળા હોય છે. કેટલાક મારગો એવા હોય છે કે જેઓ "गाउंवि" मेस-मे नी मानावा डाय मे २००२ धनु५ प्रमाणुनी मे કેસ થાય છે. કેટલાક મહારગો એવા હોય છે કે-જેઓ બે કેસની અવગાહનાથી લઈને નવ કેસ સુધીની અવગાહનાવાળા હોય છે. કેટલાક મહેર એવા હોય છે કે જેઓ એક એજનની અવગાહનાવાળા હોય છે ચાર કેસને એક જન કહેવાય છે. કેટલાક મહોર એવા પણ હોય છે કે-જે બે એજનની અવગાહનથી લઈને નવજન
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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