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________________ जीवाभिगमसूत्रे दृष्टयः, इत्युक्तम्, सम्यग् मिध्यादृष्टिः सन् जीवा न तत्रोत्पद्यन्ते तदवस्थायां जीवस्य मरणासंभवात्, तदुक्तम्- 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् । दर्शनद्वारे 'नो ओहिदंसणी नो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी' ते द्वीन्द्रियजीवा नो अवधिदर्शनिनो भवन्ति न वा चक्षुर्दनिनो भवन्ति किन्तु अचक्षुर्दर्शनिनः स्पर्शनरसनेन्द्रियापेक्षया भवन्ति तथा नो केवलदर्शननो भवन्तीति । ज्ञानद्वारमाह- 'ते णं भंते ' जीवा किं नाणी अन्नाणी' ते द्वीन्द्रियजीवाः खलु भदन्त ! कि ज्ञानिनो भवन्ति अज्ञानिनो वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'णाणी वि अण्णाणी वि' ते द्वीन्द्रियजीवा ज्ञानिनोऽपि भवन्ति सास्वादनसम्यक्त्वापेक्षया तथा अज्ञानिनोऽपि भवन्तीति । ' जे गाणी ते नियमा दुण्णाणी' ये ज्ञानिनो भवन्ति ते नियमात् द्विज्ञानिनो भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'आभिणिवोड़ियनाणी सुयनाणी य' आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च । अपर्याप्तावस्थायां मति १९४ मिध्यादृष्टि मिश्रदृष्टि होते हुए वहां उत्पन्न नहीं होते है, सम्यग् मिध्यादृष्टि अवस्था में जीव की मृत्यु ही नहीं होती है क्योंकि शास्त्र में उसका निषेध है जैसे - "न सम्ममिच्छो कुणइकालं" सम्यगृमिथ्यादृष्टि जीव काल नहीं करता है । दर्शनद्वार में ये "नो ओहिदंसणी नो चक्खुसणी, अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी" न अवधिदर्शनी होते हैं, न चक्षु दर्शनी होते हैं, किन्तु मचक्षुदर्शनी होते हैं । इसी से ये केवलदर्शनी भी नहीं होते हैं इन्हें जो अचक्षुदर्शनी कहा है-- वह स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियो की अपेक्षा से कहा है । हे भदन्त ! ज्ञानद्वार में वे क्या " नाणी अन्नाणी" ज्ञानी होते है ? अथवा अज्ञानी होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- " णाणी चि अण्णाणी वि" हे गौतम ! ये ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं ज्ञानी होते हैं तो वे नियम से दो ज्ञानवाले होते है – “तं जहा' जैसे - "आभिणिवोडियनाणी - સ્વભાવથી તથાવિધ પરિણામેાના એમને ચાગ-થતા નથી. આ કારણથી તેએ સભ્યસ્મિથ્યાદૃષ્ટિ-એટલેકે મિશ્રષ્ટિ રૂપે ત્યા ઉત્પન્ન થતાનથી. સમ્યમ્મિાષ્ટિ અવસ્થામાં જીવનુ मृत्युं न यतुं नथी. भठे शास्त्रमां तेन निषेध छे प्रेम "न सम्ममिच्छो कुण कालं" सम्यग्मिथ्यादृष्टिवाणा भवो आज उरता नथी. अर्थात् भरगु याभता नथी. दर्शनद्वारभां - ते "नो ओहिदंसणी नो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी" अवधी हर्शन वाजा होता नथी तथा अक्षुहर्शनवाजा यागु होता नथी परंतु અચક્ષુદની હાય છે. તથા તેઓ કેવળદનવાળા પણુ હાતા નથી. તેમેને જે અચક્ષુ દર્શોની કહ્યા છે તે સ્પન અને રસના આ બે ઇન્દ્રિયાની અપેક્ષાથી કહેલા છે હવે ગૌતમ स्वामी ज्ञानद्वारमा सभां ने पूछे छे - " नाणी अन्नाणी" हे भगवन् तेथेो ज्ञानी હોય છે? કે અજ્ઞાની હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે— “णाणी वि अण्णानि वि" हे गौतम! तेथेो ज्ञानी या होय छे अने अज्ञानी पयु होय थे. "जे गाणी ते णियमा दुण्णाणी' ले तेथेो ज्ञानी होय तो तेथे। नियभथी मे ज्ञानवाजा
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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