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________________ १३० जीवाभिगमस यथा प्रज्ञापनायां भेदः कथितः तथैव इहापि भेदो ज्ञातव्यः । कियापर्यन्तं प्रज्ञापनाप्रकरणं वक्तव्यं तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव ते समासओ दुविहा पन्नत्ता तं जहा पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' यावत्ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पर्याप्ताश्चापर्याप्ताश्च, एतदन्तं प्रज्ञापनाप्रकरणं वक्तव्यम् , प्रज्ञापनाप्रकरणं चेत्थम् -'किण्हमट्टिया नीलमट्ठिया लोहियमडिया हालिदमट्टिया मुक्किल्लमट्टिया पंडमट्टिया पणगमट्टिया सेत्तं सहवायरपुढवीकाइया । से कि तं खरवायरपुढवीकाइया ? खरवायरवुढवीकाइया अणेगविहा पन्नत्ता तं जहा पुढवी य सक्करा वालुया य उवले सिला य लोणूसे । तंवा य तउय सीसय रुप्प सुवण्णे य बयरे य ॥१॥ हरियाले हिंगुलए, मनोसिला सासगंजणपवाले । अभपडलभवालय वायरकाए मणिविहाणा ॥२॥ गोमेज्जए य ख्यए, अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले, भुजमोयगे इंदनीले य ॥३॥ चंदण गेरुय हंसे, पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे । चंदप्पभ वेरुलिए जलकते सरकते य ॥४॥ जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पन्नत्ता तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' ॥ कृष्णमृत्तिका नीलमृत्तिका लोहितमृत्तिका हारिद्रमृत्तिका शुक्लमृत्तिका पाण्डुमृत्तिका पनकमृत्तिका तदेते श्लक्ष्णवादरपृथिवीकायिका. । अथ के ते खरवादरपृथिवीकायिकाः ? खरवादरपृथिवीकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथाजहा पण्णवणाए" इनके भेद जैसे प्रज्ञापना में " जाव ते समासओ दुविहा पन्नत्ता तंजदा पज्जतगा य अपज्जत्तगाय " यावत् वे सक्षेप से पर्याप्तक और अपर्याप्तक के मेद से दो प्रकार के हैं, इस सूत्र तक कहे गये है वैसे ही वे सब यहां पर भी सूत्र कह लेना चाहिये । वह प्रज्ञापनाप्रकरण इस प्रकार से है-" कण्हमटिया" इत्यादि टीका से समझ लेना चाहिये । इन सूत्रों की टीका प्रज्ञापना सूत्र से ही जान लेना चाहिये, तात्पर्य इस कथन का यही है कि लक्ष्ण आणी भटिवाणा विगैरे "मेओ जहा पन्नवणाप" प्रज्ञापनासूत्रमा 1 सय मा४२ पृथ्वी पयिष्टीना नेहोरेशते ४॥ छ रेभ-"जाय ते समासो दुविहा पण्णत्ता तं जहा पपजत्तगा य अपज्जत्तगा य” यावत् तम्या सपथी पर्यात भने अपर्यातना सहथी मे પ્રકારના છે, આ સૂત્રપાઠ સુધી જે રીતે વર્ણવ્યા છે એજ પ્રમાણે તે બધાં ભેદો અહિયાં पण सत्र३ये ४डवा न त प्रजापना सूत्रनु ४२१ मा नीय प्रभारी छ - "कण्ह मट्टिया' इत्यादि" ४थन टीथी सम , मासूत्रानी । अज्ञापनासूत्रमाथी सम देवी.
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
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