SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ श्रीजीवाभिगमसूत्र आहरन्ति नो अस्पृष्टानि आहरन्तीति । आत्मप्रदेशैः संस्पर्शनम् आत्मप्रदेशावगाढक्षेत्रावहिरपि संभवतीयतः पुन. प्रश्नयन्नाह-'ताई भंते ? ओगाढाई आहारेंति अणोगाढाई आहारेंति' यानि भदन्त ? स्पृष्टानि आहरन्ति तानि किम् अवगाढानि-आत्मप्रदेशैः सहकक्षेत्रावस्थायीनि अथवा अनवगाहानि भात्मप्रदेगक्षेत्राद बहिरवस्थितानि आहरन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम : ओगाढाई आहारेंति नो अणोगाढाई आहारेति' अवगा ढानि आहरन्ति ते सूक्ष्मपृथिवीकायिका' नो-न तु अनवगाढानि आत्मप्रदेशावगाहक्षेत्राद। वहिरवस्थितानि आहरन्तीति । 'ताई भंते ! कि अणंतरोगाढाइं आहारेंति परंपरोगाढाई आहारेति' यानि भदन्त ? द्रव्याणि अवगाढानि आहरन्ति, तानि किम अनन्तरावगाढानि आहगुणित कर्कशादि स्पर्श वाले या यावत् अनन्तगुणित कर्कशादि स्पर्श वाले द्रव्यो का आहार करते हैं वे एक गुणित कर्कशादिस्पर्शवाले द्रव्य या यावत् अनन्त गुणित कर्कशादि स्पर्गवाले द्रव्य उनके आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं अस्पृष्ट नहीं होते हैं "ताई भंते ओगाढाई आहारति अणोगाढाई आहरेंति' हे भदन्त ! जो आत्मप्रदेशों के साथ संस्पृष्ट होते है उनका रहना आत्मप्रदेशावगाढ क्षेत्र से बाहर भी संभवित हो सकता है अतः इस सूत्र द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त । जो कर्कशादिस्पर्शवाले द्रव्य स्पृष्ट होते है और उनका वे आहार करते हैं तो क्या वे द्रव्य आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावस्थायी रूप से अवगाढ होते हैं ? अथवा-आत्मप्रदेशावगाही क्षेत्र से बाहर अवस्थित होते है । उत्तर में प्रभु कहते है ‘गोयमा ओगाढाई आहारेंति णो अणोगाहाड आहारैति" हे गौतम ! वे सूक्ष्मपृथिवीकायिकजीव पूर्वोक्त विशेषणवाले अवगाद द्रव्यों का ही आहार करते हैं अनवगाढ द्रव्यों का आहार नहीं करते है । "ताई कि तेने उत्तर भापता महावीर प्रभु ५ छ ‘गोयमा पुट्ठाई आहारैति, मो अपुट्ठाई आहारति" हे गौतम । ते सूक्ष्म पृथ्वीजयि ७३ २ ४ गुति ४ ५ i અથવા બેથી લઈને અનંત ગુણિત કર્કશાદિ સ્પશવાળાં દ્રવ્યોને આહાર કરે છે, તે એક ગુણિતથી લઈને અનંત ગુણિત પર્યતના કર્કશાદિ સ્પર્શવાળાં દ્રવ્યો તેમના અત્મપ્રદેશની સાથે પૃષ્ટ હોય છે, અસ્પૃષ્ટ હોતાં નથી જે દ્રવ્યો આત્મપ્રદેશોની સાથે સંસ્કૃષ્ટ હોય છે, તેમનું રહેવાનું સ્થાન આત્મપ્રદેશાવગાઢ ક્ષેત્રની બહાર પણ સંભવી શકે છે. તેથી હવે गौतम स्वामी महावीर प्रभुने सेवा प्रश्न पूछे छे ४-"ताई भंते ! योगाढाई आहारति'' अणोगाढाई आहरेति' गवन् ! शाहपशवाज द्रव्यो र उस्य छ तभना तमे। જે આહાર કરે છે, તે શું તે દ્રવ્ય આત્મપ્રદેશની સાથે એક ક્ષેત્રાવસ્થાયી રૂપે અવગાઢ આત્મપ્રદેશાવાહી દોત્રની બહાર અવસ્થિત (રહેલાં) હોય છે ? तना उत्तर आपता महावीर प्रभु से छे -"गोयमा ! ओगादाइ थाहारेंति, णो अणोगाढाइ थाहाति' हे गौरभ ! ते सक्षम पृथ्वीजयि व पूर्वोत विशे५ वाजi અવગાઢ દ્રવ્યોને જ આહાર કરે છે, અનવગાઢ દ્રવ્યોનો આહાર કરતા નથી. ગૌતમ સ્વા
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy