SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ . . . - श्रीजोवाभिगमसूत्रे . (१०) गतं नवमं समुद्घातद्वारम् । अथ दशमं संज्ञिद्वारमाह- 'तेणं इत्यादि ते णं भंते ! जीवा किं सन्नी असन्नी' ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः जीवाः खल भदन्त । कि संजिनोऽसंज्ञिनो · वा, तत्र संज्ञान संज्ञा अतीतानागतवर्तमानभावस्य पालोचनं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानवन्त इत्यर्थः । यथोक्तमनोविज्ञान विकला 'असंजिन इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा ! हे गौतम ! 'नो सन्नी असन्नी' नो सशिन इमे जीवाः किन्तु असज्ञिनः विलक्षणमनोलब्धेरभावात्-हेतुवादोपदेशेनापि न संज्ञिनः अभिसन्धारणपूर्विकायाः करणशक्तेरभावात् । नो संजिनः । एतावन्मात्र कथनेनैव असंज्ञित्वसिद्धौ असंज्ञिन इति-कथन प्रतिपेधप्रधानो विधिरिति ज्ञापयितुम् , प्रति पाथस्य सूक्ष्मपृथिवीकायिकस्य स्वभावत एव सावद्यत्वादिति दशमं संनिद्वारम् , (१०) संशिद्वार-ते णं भंते ! जीवा किं सन्नी असन्नी' हे भदन्त ! सुक्ष्मपृथिवीकायिक जीव क्या सज्ञी होते है या मसजी होते है ? अतीत अनागत और वर्तमान भाव की 'जो पर्यालोचना है उसका नाम संज्ञा है, यह संज्ञा जिनको होती है वे सज्ञी है। विशिष्ट स्मरणादिरूप जो मनोविज्ञान है उस मनोविज्ञानवाले जो जीव है वे संज्ञी हैं। और जो इस मनोविज्ञान से विकल हैं वे असंज्ञो हैं । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा नोसन्नी असन्नी' हे गौतम । ये सज्ञी नहीं होते है किन्तु असजी होते हैं। क्योंकि इनमें विलक्षण मनोलब्धि का अभाव रहता है । हेतुवाद के उपदेश से भी संज्ञावाले नहीं होते है क्योंकि अभिसन्धारण पूर्वक कारण शक्ति का 'इनमें अभाव रहता है । शंका-'नो संज्ञिनः' इतने मात्र कहने .से ही इनमें असंज्ञित्व की सिद्धि हो जाती है फिर असंज्ञिनः ऐसा कथन क्यों किया? (१०) सज्ञाद्वा२-"तेणं भंते । जीवा किं सन्नी असन्नी ?" હે ભગવન્ ! સૂફમપૃથ્વીકાયિક જી સંસી હોય છે, કે અસંસી હોય છે? * અતીત, અનાગત અને વર્તમાન ભાવની જે પર્યાલોચના છે, તેનું નામ સંજ્ઞા છે. આ ‘સત્તાનો જેમનામાં સદૂભાવ હોય છે તેમને સંની કહે છે, વિશિષ્ટ સ્મરણદિપ મને વિજ્ઞાનવાળા જે જીવે છે, તેમને સંગી કહે છે, અને આ મને વિજ્ઞાનથી રહિત જે જીવે છે, તેમને અસંસી કહે છે. गौतमस्वाभीना प्रश्न उत्तर भापता महावीर असई है-"गोयमा! नो सन्नी असन्नी" ई गीतम! सूक्ष्म पृथ्वीय छ। सभी खाता नथी, पण तसा मसी જ હોય છે, કારણ કે તેમનામાં વિશિષ્ટ મને લબ્ધિને અભાવ હોય છે હેતુવાદના ઉપદેશ અનુસાર પણ તેમને સંજ્ઞાવાળા કહી શકાતા નથી, કારણ કે અભિસંધારણ પૂર્વક કરણશક્તિને તેમનામાં અભાવ હોય છે " " -"नो संझिनः" "सभी बात नथी, मार उपाथी तमनाभा असजिल सिथाय छे, छतi ५ "भसंशिनः" "मसी डाय छे", 24 प्रा२र्नु थिन A! भाट ४यु छ?
SR No.010388
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages693
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy