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________________ जीव और कर्म विचार । [ १२३ सदाचार और कदाचार द्वारा, पाप पुण्यरूप प्रवृति द्वारा, सत्य और मिथ्यावचनवर्गणाद्वारा, हिंसा झूठ चोरी कुशील पापाचरण अनीति अन्याय और जप तप ध्यान पूजा दान स्वाध्याय 'देवशास्त्रगुरु श्रद्धान द्वारा जो कर्म करता है उसका ही फल सुख दुःख रूप वेदनीय कर्म द्वारा प्राप्त होता है । जीव जैसे भले बुरे कार्य करता है उसका फल वह स्वयं वदनीय कर्म द्वारा प्राप्त कर लेता है। ऐसा नहीं है कि जीव तो स्वयं पाप कर्म करे और उसका फिल ईश्वर प्रदान करे या ईश्वर पापकर्मसे मुक्त कर देवे अथवा विश्वर ही उन पाप कर्मोंके फलको भोगे । ऐसा भी नहीं है कि नो ईश्वर करावे और जीव उसका फल सुख दुःख भोगे । जीवका कर्ता और भोक्तारूप है । इसलिये न तो भले बुरे कर्मको ईश्वर जीवसे करोता ही है और न उसका फल ही ईश्वर भोगता है या देता है ऐसा माना जाय तो नावकी शक्ति वंध और मोलकी ठहर जाय । अथवा दृढ़ होजाय, जीव किसी प्रकार निरा जीवकी पराधीनता सदाके लिये सुनिश्चित अर्किचित्र होजाय और ईश्वरका वध सत्य सत्य स्वरूप सुनिश्चितरूपसे न बन सके। इसलिये जीव स्वयं कर्म करता है और वेदनीकर्म द्वारा स्वयं उसका फल भोगता हैं। * - "स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं च फलमश्नुते " मात्मा स्वयं कर्म कर्ता है और स्वयं उसका फल भोगने वाला
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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